Friday, 21 November 2014

सात द्वार का पद्मव्यूह


महाभारतीय  शातिर  मस्तिष्क  
आज भी  अभिमन्यु ( ह्रदय ) अज्ञानी 
अँधेरे में भटकते  तीर चलाये जाते है 
चक्रभेदन-कला  अर्जुन  नहीं सीखा सका 
आज भी कृष्ण गीता मौन  दोहराये जाते  है 
आज भी  मानवता के वे सात शत्रु
समस्त लौकिक ज्ञान पराक्रम योग कला निपुण 
दिव्य सहज-सहत्रधार के मध्य में 
अभेद खड़े कुटिलता से मुस्कराते नजर आते है 



मस्तिष्क समस्याऐँ दे रहा
मस्तिष्क ही उसे सुलझाने
का असफल प्रयास कर रहा
देखो ! मस्तिष्क का मजा !

आज भी अभिमन्यु है
आधे ज्ञान से  उत्साहित
सीमित शस्त्रों से युक्त
चल पड़े  चक्र भेदन को !
कमस्कम इतना सोचो
चक्रव्यूह  बना कैसे ?
सात द्वार  कहाँ ?
प्रवेश तो पा लोगे
किन्तु निकासी  कहाँ ?
वे सातो वीर शत्रु
आज भी मध्य में ही है !

पद्मव्यूह रचना समझ
हर चक्र का मर्म जान
इड़ा पिंगला संग सुषमन
साथ तुम्हारे रक्षा को
सात घेरो के चक्रव्यूह में
मूलचक्र भेदन भी बाकी है !

समस्या का स्रोत  कहाँ
सर्प कहाँ फुंफकार रहा
विष बीज कहाँ  पे गिरा ,
जो आज वृक्ष बन फला
इस करुक्षेत्र की धरती पे
उद्गम बीज स्थल कहाँ है !

अंध भटकन के साथ
विजय न हासिल होगी
एक एक चक्र को भेदना
वीर विजयी हो निकलना
द्वापर में काल ले गया
अब तो तनिक करो विचार
इसबार भी क्या दोहराओगे
आधा ज्ञान ले युद्धस्थल में
फिर  यूँ  ही उतर जाओगे ...!

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