उछाल लेता विशाल समंदर
मत्स्य प्यासी अंतर्मन तक
श्वांस श्वांस माया को पीती
तैरती उसी मे उसी में रहती
माया से बाहर सांस न आती
माया के अंदर भी छटपटाती
माया-सागर अंदर रह के भी
क्यूँ कर तेरी क्षुधा ना जाती
मत्स्यमन मत्स्यबुद्धि मय
जान ले अब माया-अस्तित्व
विस्तृत गहराई ऊंचाई भीतर
अगाध नीर तेरा मूल निवास
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