Friday, 28 November 2014

वो मजा शोर-शराबे में कहाँ जो तारों की खामोश टिमटिमाहट में है

द्भुत  है संसार , अद्भुत है  सौंदर्य , और उपहार जो आभास का है  अप्रतिम है , बारम्बार  आभार है , धन्यवाद  है  उस परम  को  , जो समस्त  जीवन में मिला है      काली रात के खामोश से  दूर बाहर दूर दिखते  तारों की टिमटिमाहट  देख के  प्रेम पूर्ण भाव जगा है , जो आप सभी मित्रों से  और जो भी इसको पढ़ रहे है  या आगे भी पढ़ेंगे ; सभी से बाँटना  चाहती हूँ , ये जो तारों का जाल आप देख रहे है , इनके ऊपर शक्ल भी  लाईनो  से जुडी  दिख रही है ये खोज  अति पुरातन काल में उन  ऋषिजन की विद्वता के संकेत है  जो ब्रह्माण्ड में ऐसी लाईने  उन तारों से आपसी उनके संपर्क संपर्क को तो दिखती ही है , उनसे हमारे संपर्क और सम्बन्ध को भी दर्शाती है , आखिर चुंबकीय सम्बन्ध तो है हमारा और उनका - 




अब वो मजा शोर-शराबे में कहाँ 

जो तारों की खामोश टिमटिमाहट में है


झील का सौंदर्य अपलक निहारने में है 

मजा बंद आँखों से मीता गुनगुनानने में है


हवा के झोको से चहकते फूलों में है 

मजा सिंधुतट को बेवहज चूमती लहरों में है


घाटी की गहराईयों के खिंचाव में है 

मंथर चलते मेघ को निर्मेष हो निहारने में है


वो मजा बेसाख्ता बोलने में कहाँ 

जो मजा खुदको बेसाख्ता मौन खंगालने में है



मेरे आत्मप्रिय ने इस के उत्तर में दो लाईने लिखी है जो इसी कविता से सम्बंधित है , बहुत सुन्दर है, प्रस्तुत है - 
 Kaushal Rakesh बादशाहों की ख्वाब्गाहों में कहाँ....वो मज़ा जो घास पर सोने में है.... वो मज़ा कहाँ मुतमईन हंसी में ... जो मज़ा एक दुसरे को देख कर रोने में है...  

बरम्बार शुक्रिया !  धन्यवाद ! सप्रेम  पुनः  आभार , एक ऐसी ही मौन रात्रि में  अवसर है  तारों से बातें करने का , अपने ही है  या हम उन जैसे है  एक ही बात है एक ही सिक्के के दो रूप ,  दोनों ही प्रतीक्षा में की वार्ता शुरू हो।  

प्रणाम !

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