Tuesday, 19 August 2014

एक बूँद मन




एक  बूँद  मन, थोड़ा सूखा सा और थोड़ा गीला सा 

प्रादुर्भाव - अंत तक भीगा कुछ सूखा अंतर्मन मेरा  

गीले मन को साथ लिए सूखे मन को छोड़ता गया 

सुखी हुई जिंदगी गीली जिंदगी से लुत्फ़ लेती रही 

सांप की हो केंचुल या के पुराने जीर्ण शीर्ण  खँडहर 

या इंसानी  दिल की जमीन और आसमानी मंजिले 



बूँद को स्रोत मिला,निकल ऊबड़खाबड़ रास्तों पे बहा

बढ़ता  कुछ चलता हुआ कुछ वाष्प बन के उड़ गया

भीगी गीली इकठी बूंदों को कुछ ने नदी तड़ाग कहा

तो किसी ने इन को अथाह समंदर का नाम दे दिया

यहाँ भी कथा का सार तो वोही सूखे और गीले का है

जो सुखा था वो उड़ गया, जो भीगा था वो रह गया



मिलनेबिछड़ने का अद्भुत कथासार और मैं सूत्रधार

वृक्ष की जड़ो से जा मिला, उसकी  नसों में बह गया

काँटों  में  बहा , फूल फल पत्तो से भी मिल के आया

वहां  भी  नज़ारा कुछ ऐसा ही देखने को मुझे  मिला

वृक्ष उनको अपने से बांध  सका जो हरे और भीगे थे

जो सूखे थे कुछ आँधियों में उड़ गए कुछ बिखर गये


गीले पत्ते कब टुटा करते है,सूखे कब रुकते ओ ठहरे है 

आँधियों में उड़ते तैरते असंख्य कणों की है ये दास्ताँ

सूखे तरंगित भाव अथवा  भीगे चिपके सीले से भाव

प्रकर्ति बाधित नियम है सारे कहना क्या सुनना क्या

जो गीले थे वो उड़ न सके , जो सूखे थे वो रह न सके

प्राचीन परिपाटी को जिस्म - दिल भी निभाता गया


बहते अनेक रास्तों से मिला ,अंततः जो उसके न थे 

कुछ दोस्त बने साथ चले सूखे खो गए गीले रह गए

जो मेरे थे, साथ यात्रा के साक्षी थे, गीले वो ही मेरे थे

और मैं भीगा सा गीले मन को साथ लिए बहता गया

छूट गए जो सूखे थे औ गीले रास्तो पे मैं चलता गया

कभी नदी कभी तड़ाग और समंदर  भी मैं बनता गया

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