ओम गुरु ओम गुरु परात्परा गुरु ओंकारा गुरु तव शरणम् ओंकारा गुरु तव शरणम
कभी कोई पानी जैसा तरल मिल जाये
फूलो जैंसा सुगन्धित सरल मिल जाये
जब किसी की मुस्कराहट में दिखे ओज
बोल लगे,आह ! ये दिल कीही आवाज़ है
जब उठ चले पीछे चलने का दिल चाहे
वो सोये शांत सिरहाने बैठना दिल चाहे
विषय महीन बुद्धि शौर्य से बाहर जानो
दिल से अब मिला तर्कसंग से छू होजाये
प्रेम में स्नानं ह्रदय दीप स्वयं जल जाये
ऐसा आत्मन, स्व-भाव पकड़ यदि आये
जानना , ईश्वर की असीम अनुकम्पा है
दुखों से पार जाने का समय, आ चुका है
बुद्धिजीवी समझना यहाँ महीन भेद को
कील धुरी नहीं बंद या खुला फाटक नहीं
इशारा करता सा वो ज्ञानी एक दिशा को,
वो साधु तटस्थ मौन निर्लिप्त खड़ा है
नहीं - नहीं ! गुरु कोई बाह्य शब्द नहीं
ये सहज अंतर तरंग प्रेरणा वार्तालाप है
रुको पल को देखो ,ग्राह्य को ग्रहण कर
अपने ही आगे के गंतव्य को बढ़ चलो
समर्पण बाहर नहीं अपने अंतस्तं का
आप ही गुरु बनो चेला भी आपै कहावो
बाहर के छद्म दिखावे दिखाने मात्र को
सोचो-समझो, देखो-भालो, धोखा कैसा !
खुद की लिखी करनी सब खुद ही भरणी
विधि ओ विधान बीच दूजा कहाँ समाये
परमपुत्र तुम एक अनोखे अपने को मानो
सारअसार का सार इत्ता ही स्व को जानो
घमंड नहीं प्रेम करो समस्त जगत में तुम
तुममे ही समस्त जगत का वास है जानो
बंधना एक तरंग एक उमंग एक लहर से
फिर कहती हूँ शरीरतत्व से कभी न बंधना
तत्व से तत्वगत कमिंयां सबमें ही पाओगे
बौधिक विषपान से क्या कभी बच पाओगे ?
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