Sunday, 3 August 2014

मन का तीरथ



एक ठौर मिला,सुनो संतो !
एक वृक्ष तले श्राँत विश्राम
तीरथ एक ही  मन-आश्रम 
बाहर चमचम करती माया
सब देखा , सब कुछ जाना
घूमघाम ये  दिया जलाया
स्वप्न गया उठ जाग देख
अपना नहीं,सब बेगाना है
बाहर मिटटी  भीतर सोना
बाहर  छल  है  भीतर गंगा

मट्टी शरीर मट्टी माया 
भावपूर्ण क्योंकर भर्माया 
क्या कभी तू पा सका वो-
जुबान दर्द से खाली न हो
आँखे  वे  नाश देखा न हो
कर्ण  वो  विष उतरा न हो
घ्राण  दुर्गन्ध  सूंघी  न हो
बुद्धि  द्वेष  उभरा न  हो
ह्रदय  वो  लोभ रहा न  हो
शरीर व्याधि मुक्त जो हो
भू-खंड जो शवगाह न  हो
आसमां कभी रोया  न  हो
कोई  मंदिर कोई मस्जिद
चर्च  जहाँ जलजला  न हो
कोई इक गाँव  कोई शहर
स्खलनभूकम्पबाढ़ न  हो
कोई मुल्क  युध्ह  विहीन
योधा युद्ध में मरा न  हो 
मानव का इतिहास न  हो 
कैसे  बचेगा  मन  कपोत
ध्यान बिन अज्ञानीज्ञानी 

बाहर  कलपन  बिलखन
भीतर  स्रोत शीतल पाया
जैसे उडी जहाज को पंछी
पुनि पुनिजहाज पे  आवै
तीरथ  एकै मन  का एक
बाहर  जगमगाती  माया
सब देखा सब कुछ जाना
घूमघाम ये दिया जलाया 
मन का तीरथ एके तीरथ
शेष तिस्लिम् माया मान



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