Wednesday 18 June 2014

याद में : लेकिन कल की मत बात उठाओ (Gopal das neeraj via osho )




आज जी भर देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए!
दे रहे लौ स्वप्न भीगी आंख मग
तैरती हो ज्यो दिवाली धार पर
ओंठ पर कुछ गीत की लड़ियां पड़ी 
हंस पड़े जैसे सुबह पतझार पर, 
पर न यह मौसम रहेगा देर तक
हर घड़ी मेरा बुलावा आ रहा,
कुछ नहीं अचरज अगर कल ही यहां 
विश्व मेरी धूल तक पाए न पाए! 
आज जी भर देख लो तुम चांद को 
क्या पता यह रात फिर आए न आए! 

ठीक क्या किस वक्त उठ जाए कदम
काफिला कर कूंच दे इस ग्राम से
कौन जाने कब मिटाने को थकन 
जा सुबह मांगे उजाला शाम से, 
कल के अद्वैत अधरों पर धरी
जिंदगी यह बांसुरी है चाम की 
क्या पता कल श्वास के स्वरकार को
साज यह, आवाज यह भाए न भाए!
आज जी भर देख लो तुम चांद को 
क्या पता यह रात फिर आए न आए 

यह सितारों से जड़ा नीलम-नगर
बस तमाशा है सुबह की धूप का,
यह बड़ा सा मुस्कुराता चंद्रमा
एक दाना है समय के सूप का,
है नहीं आजाद कोई भी यहां
पांव में हर एक जंजीर है
जन्म से ही जो पराई है मगर 
सांस का क्या ठीक कब गाए न गाए।
आज जी भर देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए 

स्वप्न-नयना इस कुमारी नींद का
कौन जाने कल सवेरा हो न हो, 
इस दिए की गोद में इस ज्योति का
इस तरह फिर से बसेरा हो न हो, 
चल रही है पांव के नीचे धरा 
और सर पर घूमता आकाश है
धूल तो संन्यासिनी है सृष्टि से 
क्या पता वह कल कुटी छाए न छाए! 
आज जी भर देख लो तुम चांद को 
क्या पता यह रात फिर आए न आए!

हाट में तन की पड़ा मन का रतन
कब बिके किस दाम अज्ञात है, 
किस सितारे की नजर किसको लगे?
ज्ञात दुनिया में किसे यह बात है,
है अनिश्चित हर दिवस, हर एक क्षण 
सिर्फ निश्चित है अनिश्चितता यहां 
इसलिए संभव बहुत है प्राण! कल 
चांद आए, चांदनी लाए न लाए !
आज जी भर के देख लो तुम चांद को
क्या पता यह रात फिर आए न आए!


एक मुसाफिर हूं मैं एक मुसाफिर है तू


(कोई 'कारवां' की फरमाइश करता है, और वह शुरू हो जाते हैं)


स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई 
पांव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआं पहन पहन गए 
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे।



नीरज जानते हैं कि उनके हिस्से में ढेर सारा प्यार आया है। इसलिए वह अपनी बात इस गजल के साथ खत्म करते हैं,

इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में
तुमको लग जाएंगी सदियां हमें भुलाने में
न तो पीने का सलीक़ा न पिलाने का शऊर
ऐसे ही लोग चले आए हैं मयखाने में
आज भी उनके लिए होती हैं पागल कलियां
जाने क्या बात है 'नीरज' के गुनगुनाने में




कितनी अतृप्ति है ( एक छोटा सा  इंटरव्यू श्री कुलदीप मिश्र द्वारा  पोस्ट किया गया)

नए लेखकों में कौन पसंद?
अब ज्यादा सुन नहीं पाता हूं। गुलज़ार अच्छा लिख रहे हैं।

वह तो नए नहीं हैं?
हां पर पहले वह इतने पॉपुलर नहीं थे।

आपकी कविताओं पर किसका प्रभाव रहा?
शुरूआत में बच्चन को बहुत पढ़ा। फिर अपनी लेखन शैली उनसे अलग कर ली।

खुद का लिखा फेवरेट?
सब मेरे बच्चे हैं, सबसे प्यार है


सबसे प्यारा बच्चा?
'कारवां गुजर गया' ही है। लोगों ने इतना पसंद किया

फिल्मों में लिखना क्यों छोड़ दिया?

वे लोग नहीं रहे जिनके साथ लिखता था।

आज जब शोखियों में घोला जाए सुनते हैं तो ज़ेहन में क्या तस्वीर उभरती है?
मैंने तो इसे 'चांदनी में घोला जाए' लिखा था। पर गाना दिन में शूट होना था, इसलिए बाद में इसे 'शोखियों' कर दिया।

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