Tuesday, 3 June 2014

चौबीस घंटे / चार पहर की जिंदगी



कजैसी एकलय गीत गाती सालों साल 

दोहराती  खुदको समझाती गयी हमको !

सुबह से रात तक मोती सी बिखरी हुई है 
और कहने समझने को बाक़ी बचा क्या !

पुरे चौबीस घंटे चार पहर मिले थे ओस से 
जीने को हाथ 
आये तीन पहर अठारह घंटे !


वो  पल , पल-पल फिसलती रेत मानिंद
बंद मुठी से सरकता रहा , बिखरता रहा  !

आँखे खुली तो लाल-बाल सूरज उग रहा था
तारो ताजा से उठ  भागने दौड़ लगाने लगे !

मध्याह्न सूरज हुआ उफ़ ! तप्त तेजवान 
अभी फुर्सत कहाँ जो हम इधर उधर सोचें  !


उम्मीदे बनती  गयी  मंजिलें   चलती  गयी 

राह में लोग मिलते गए कारवां बनता  गया !

समय भी  बहता रहा हसरतें मचलती रही
सुई बढ़ती रही यूँ ही समय फिसलता गया !

शाम हुई; एक बार सूरज फिर से लाल हुआ
फर्क था सुस्ती का, तेजी भी अब नदारत थी !

काम से लौट घर जाने को मन बेचैन हुआ
थके कदमो थे पर उत्साह से भरे हम चल पड़े !

रास्ते की पीडा, काम की थकान , टूटे हुए से
अथक कोशिशों से राह पार करते बढ़ते चले !

ठीक रुके घर आके सांकल खटखटाई प्यार से
दरवाजा खुला,दोबारा समां गए अपने घर में !

अपने ही वजूद में अपनों के बीच सिमट गए
रात बिस्तर पे पड़े नींद में जाने को थे, देखा !

मिला समय चौबीस घडी और चार पहर का
तीन पहर अठारह घंटे दौड़ में ही थे बीत गए !

खिरी अंतिम पहर तीन-तीन के दो भाग का 
पहला  (नींद) गर्भ दूजा  (नींद) मृत्यु को दे दिया !


Photo: चौबीस घंटे / चार पहर की जिंदगी :
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एक जैसी एकलय गीत  गाती सालों साल 
दोहराती हुई खुदको समझाती गयी हमको !

सुबह से रात तक में  जिंदगी बिखरी हुई है 
और  कहने समझने को  बाक़ी  बचा  क्या !

पुरे  चौबीस घंटे चार पहर मिले  जीने को 
जीने को  हाथ में आये  सिर्फ अठारह  घंटे !

वो भी पल पल-पल फिसलती रेत  मानिंद 
कसी हुई मुठी में से सरकते रहे, बिखरते रहे !

दो घंटे गर्भ  दो घंटे  मौत के साथ जीते हुए 
बीच के खेल  में  जाने  क्या क्या करते रहे !

आँखे खुली तो लाल बाल सूरज उग रहा था   
तारो ताजा से हम भागने  दौड़ लगाने लगे !

मध्याह्न का सूरज हुआ तप्त तेजवान बन 
किसको फुर्सत कहाँ अभी  इधर उधर देखे !

ढलने लगी उम्र  सूरज  की  तेज क्षीण  हुआ 
सोचा आराम करलें फिर वो ताजगी  मिलेगी !
 
कहाँ  वो ही ताजगी ! समय तो बहता रहा
राह में लोग मिलते गए , जश्न मानते गए !

यूँ कहिये दिल  बहलाते औ काम चलाते रहे 
सुई बढ़ती रही यूँ ही समय फिसलता  गया !

शाम  हुई; एक बार सूरज फिर से  लाल हुआ 
फर्क था सुस्ती का, तेजी भी अब  नदारत थी !

काम से लौट  घर जाने  को  मन बेचैन हुआ   
थके कदमो थे पर उत्साह से भरे हम चल पड़े !

रास्ते की पीडा, काम की थकान , टूटे हुए से  
तमाम कोशिशों से पार करते हुए बढ़ते चले !

ठीक रुके घर आके सांकल खटखटाई प्यार से 
दरवाजा खुला,दोबारा समां गए अपने  घर में !

अपने ही वजूद में अपनों के बीच  सिमट गए 
रात बिस्तर पे पड़े नींद में जाने को  थे, देखा !

मिला समय चौबीस घडी और चार पहर  का   
तीन पहर  अठारह  घंटे दौड़ में ही थे बीत गए !

बचा .. आखिरी .. अंतिम पहर है छह घंटे का 
आधा  (नींद) गर्भ आधा (नींद) मृत्यु को दे दिया !
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