एकजैसी एकलय गीत गाती सालों साल
दोहराती खुदको समझाती गयी हमको !
सुबह से रात तक मोती सी बिखरी हुई है
और कहने समझने को बाक़ी बचा क्या !
पुरे चौबीस घंटे चार पहर मिले थे ओस से
जीने को हाथ आये तीन पहर अठारह घंटे !
वो पल , पल-पल फिसलती रेत मानिंद
बंद मुठी से सरकता रहा , बिखरता रहा !
आँखे खुली तो लाल-बाल सूरज उग रहा था
तारो ताजा से उठ भागने दौड़ लगाने लगे !
मध्याह्न सूरज हुआ उफ़ ! तप्त तेजवान
अभी फुर्सत कहाँ जो हम इधर उधर सोचें !
उम्मीदे बनती गयी मंजिलें चलती गयी
राह में लोग मिलते गए कारवां बनता गया !
समय भी बहता रहा हसरतें मचलती रही
सुई बढ़ती रही यूँ ही समय फिसलता गया !
शाम हुई; एक बार सूरज फिर से लाल हुआ
फर्क था सुस्ती का, तेजी भी अब नदारत थी !
काम से लौट घर जाने को मन बेचैन हुआ
थके कदमो थे पर उत्साह से भरे हम चल पड़े !
रास्ते की पीडा, काम की थकान , टूटे हुए से
अथक कोशिशों से राह पार करते बढ़ते चले !
ठीक रुके घर आके सांकल खटखटाई प्यार से
दरवाजा खुला,दोबारा समां गए अपने घर में !
अपने ही वजूद में अपनों के बीच सिमट गए
रात बिस्तर पे पड़े नींद में जाने को थे, देखा !
मिला समय चौबीस घडी और चार पहर का
तीन पहर अठारह घंटे दौड़ में ही थे बीत गए !
आखिरी अंतिम पहर तीन-तीन के दो भाग का
पहला (नींद) गर्भ दूजा (नींद) मृत्यु को दे दिया !
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