सोचती थी दिल_दिमाग से , ये लिखूं वो लिखू
कुछ भी नहीं लिख सकी
विषय तलाशे , पूर्वहारे हुए से शब्दकोष टटोले
एक शब्द भी काम न आया
परे था सोच के यूँ लेख ओ कविताये बनाउंगी
इस लेखिनी की इस स्याही से
अपनी ही भावनाओं का सुन्दर हार पहना के
अर्पण किये समस्त प्रयास
ध्येय बदला रास्ते संग रह गया इक\पथगमन
स्वध्यान स्वपूजन स्वार्पण
मध्य इनके बिजलिया चमकी अँधेरा हटा
स्व आकर मिला स्वतः बीज को
ध्यान में ही उसके कथन को सूत्रबल बंध मिला
याद नहीं कब क्या और कैसे
फिर जो भी लिखा गया, लिखा उसीने ध्यान में
निमित्त बने उँगलियाँ दिल दिमाग
विषय, स्याही, कलम, दवात सभी तो उसके
उसीका अचरज बिखरा चहुँ ओर
क्या कुछ नहीं घटा इस ध्यान मध्य में
देख मुझे भी अहसास हुआ
ये मैं नहीं कहती , कोई है जो कह जाता है
स्पष्टतः कोई कह जाता है..
थके थे नाहक पत्थर भरी कर्म गठरी से लदे
बैलगाड़ी के कुत्ते सदृश हम ....
यकीं हो चला जीवन हम नहीं जीते हमारा
हममें ही बैठ हमें कोई जी जाता है !!
धोखे में थे हमने किया, कर्ता बैठा वो अंजाना
हममें ही रह के हमें सब दे जाता है !!
यकीं हो चला कि जीवन हम नहीं जीते हमारा
हममें ही बैठ हमें कोई जी जाता है !!
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बहोंत ही सुंदर, अदभूत, सच है.
ReplyDeletedhanyvad
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