Friday, 15 May 2015

इक्छाओं के आकारजाल



कण तृण निर्जीव था 
इक्छाओं के आकार को 
कैसे देता! तब कर्म लिप्त शब्द भी तो नहीं थे 
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कुम्हार ने मट्टी को 
चाक पे घुमा दिया 
सात रंग का नक्काशीदार सुन्दर कप बना दिया 
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इक्छा इतराने लगी 
बर्तनों मेंअंतर्द्वन्द्व
धौकनी की रफ़्तार देखो धक धक ! छक छक ! 
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सर्प नृत्य होने लगा 
श्वांस अतिरेक चल पड़ी 
गुरियोँ से भरी रीढ़ अथक व्यायाम करने लगी 
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ज्ञानी एकत्रित कणो ने 
समझ के फिर समझाया 
इंगला पिंगला के तान बान में गुरियों को पिरोले 
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तमाम उम्र एक काम 
उठाती रही वो धौंकनी 
रंग में रंग मिला  नाड़ी में पिरो माला बनाती रही  
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और एक दिन छेद हुआ 
धौंकनी जमीं पे गिर पड़ी 
अस्तित्व पुनः अः+तत्व था , सिवाय कर्म+फल के 
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फलेक्षा पुनः आकार बनी
पूर्ववत अब निर्दोष न हो  
कर्म-फल-भोग-दोषारोपण-कर्म-चक्र-जाल संयुक्त थी

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