कण तृण निर्जीव था
इक्छाओं के आकार को
कैसे देता! तब कर्म लिप्त शब्द भी तो नहीं थे
.
कुम्हार ने मट्टी को
चाक पे घुमा दिया
सात रंग का नक्काशीदार सुन्दर कप बना दिया
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इक्छा इतराने लगी
बर्तनों मेंअंतर्द्वन्द्व
धौकनी की रफ़्तार देखो धक धक ! छक छक !
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सर्प नृत्य होने लगा
श्वांस अतिरेक चल पड़ी
गुरियोँ से भरी रीढ़ अथक व्यायाम करने लगी
.
ज्ञानी एकत्रित कणो ने
समझ के फिर समझाया
इंगला पिंगला के तान बान में गुरियों को पिरोले
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तमाम उम्र एक काम
उठाती रही वो धौंकनी
रंग में रंग मिला नाड़ी में पिरो माला बनाती रही
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और एक दिन छेद हुआ
धौंकनी जमीं पे गिर पड़ी
अस्तित्व पुनः अः+तत्व था , सिवाय कर्म+फल के
.
फलेक्षा पुनः आकार बनी
पूर्ववत अब निर्दोष न हो
कर्म-फल-भोग-दोषारोपण-कर्म-चक्र-जाल संयुक्त थी
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