Tuesday, 5 May 2015

आह ! जिंदगी...



आह ! हाशिया सा लग जाता है 
ख्वाहिशों के जमा  पुलिंदे लिए 
इन्सां अचानक ही उठ जाता है 
न कह पाना, न कुछ सुन पाना 
रूह वक्त मुक्कमल हो जाता है 
.
उम्र के साज पे झनझनाते तार 
कहते हैं गुनगुना जीभर के राग 
साजआवाज का ये  संगम कहाँ ! 
आज की सोंधी महक, अब में है 
बीतते कल परसों बरसों में कहाँ.

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