Friday, 15 May 2015

नासमझ समझ






फुर्सत के है चहचहाने, मौजों से बंधे किनारे है 
वख्त कहाँ ! आदिअंतहीन का आद्यान्त खोजें  
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शाश्वत आदि अंत किसने देखा लिखा गाया है 
किस्से सामायिक चंद बंधे टुकड़ों की दास्ताँ है 
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फिर भी मन तू बेचैन है , कुछ कहने सुनने को 
आज इस पल में  घटती घटनाएँ  कल की कथा 
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कथाओं के किस्से किस्सों से परिवर्तित गाथाएं 
गाथाओं का बनता अमिट इतिहास जलतरंग पे  
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हम पलट रहे गाथाओं के ऐतिहासिक पन्नो को
जलतरंग जिसको देती स्वर कल-कल चल-चल
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नासमझ समझ बहते समय की ये धार-दुधारी है  
इसपे बहना तेरी किस्मत सँभलना जिम्मेदारी है 
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Om Pranam

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