Tuesday 5 May 2015

मोह के धागे


मिटती सभ्यताए , उभरती संस्कतियां , नए प्रयोग और नयी प्रयोगशालाएं , इन सबके नशे में डूब के या उतर के या पार हो जो बच रहा 'एक सच ' ॐ



अभीअभी अपनी आँखों के 
सागर में  उफ़ां उठते देखा 
भूकम्प से हिली धरती और 
साम्राज्य धुसरित होते देखा 
भावना नीर हो नैन में छल्के 
प्रार्थना की बद्री बरसी होंगी 
मानवता के नाम पे नारे हुए 
समाजिकयोग् सहयोगमूक  
.
फिर सब  सामान्य  हो गया 
यहाँ वहां सभी  के जीवन में 
कहाँ कुछ ज्यादा टिकता है!
टिकने संग ही फिसलता  है  
धरती हिले सिंहासन डोला है 
वर्ना शिवयोग कहाँ हिलता है 
.
मिजाज घुमक्कडी आदतन
घूमते वीरान हुई बस्तियों में 
उजड़े शहरों में  भावना भर 
संसारयोग अधीन होते योगी 
अस्मां ताकते सागर झांकते
यहाँ वहां दफनगाह भी पाते 
शव जलते देख भूल जाते है 

मंजीरा बजाते चल पड़ते हम 
फिर गुजरे वीरां हुई बस्ती से 
चलते थे कभी सुनसां बाजार 
सलीके से बने पक्के टूटे घर  
टूटे कुएं, सुने शहर, गली थी
हजारों साल बाद नीव ही थी
धुंधले निशान , हवा में कहते 
इंसान की दास्ताँ ए ख्वाहिश 

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