Monday, 25 May 2015

दर्पण


कोई मरने को  जीता  है 
कोई जीने  को  मरता है 
अच्छा-बुरा कला-सफ़ेद 
दिनरैन सा संग रहता है 

मूर्खविद् दोनों पूर्णसंग 
ज्ञानी को मूर्ख ढूंढे और 
मूरख  को   ढूंढे   ज्ञानी
होता कुछ  यूँ उलट पर -
मूर्ख  खोजे  मूर्ख  मिले 
ज्ञानी खोजे मिले ज्ञान  
विरोधाभास  पूर्ण  चक्र 
कौन मूरख कौन ज्ञानी 
तुमने कही हमने मानी 
नानक कहे दोनों ज्ञानी 

ये  दर्पण  झूठ  न बोले 
जैसा भाव वैसा ही बोले 
उधर से मैं खुद को देखू 
इधर से मैं खुद को पाऊँ 
मूर्ख  को  दिखे  है  मूर्ख 
ज्ञानी  को  दिखे  ज्ञानी 
सौंदर्य  बदसूरती चाहत 
घृणा  उदासी  ख़ुशी सब 
प्रतिबिंब भंडार निशानी 


तुमने दी  माया  मैंने ली 
घड़े में  दही  मक्खनदार 
रस्सी बंध  मथानी चली 
एक घूमाता दूजा घूमता 
माया  ठगनी  हम जानी 
एकने कही दूजे ने  सुनी  

गुरु समझे  मख्हन  मेरा 
आश्रम आश्रय  सब  मेरा  
आ जाओ हूँ  सक्षम  " मैं "
शिष्य कहे मख्हन है मेरा
बस तुम मेरी पीड़ा ले लो 
इस दिल पे काहे का भार  
ले दे के सब किया बराबर 
चलता यूँ सबका कारोबार 

मिलजुल खाते घी  चुपड़ी 
दोनों तलाश में दोनों  की 
वर्तुलबंधन दोनों  ही पक्ष  
कौन  चला  रहा   मथानी 
कहाँ   निकलता   मख्हन 

इक बेचता  मख्हन  बाहर 
इक  बनाता सेहत  अपनी
दोनों सयाने  दोनों  ज्ञानी 
मोहनी  करती अमृत बाँट 
दिमाग के खेल  है लुभावी 
ह्रदय तिजोरी है करामाती
अपनी ही रची माया दृश्य 
अपने  हास्य से आनंदित 
सुने अट्टहास पृकृति  का 

संकेत :  ये  एक पूर्ण घेरे के विपरीत ध्रुवी  दृश्य  को प्रस्तुत करती निष्प्रयोजन  और महाप्रयोजन के अर्थ में लिखी कविता है।   सार सार  को गहि रहे थोथा देयी उड़ाय।  भगवतीदास  नन्दलाल  भाई जी के साथ  वार्ता  पे आधारित।  

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