रे मंडूक ! कुँए से निकल नभ देख सही
अँधेरे में घुला उजाला, उतना ही नहीं है
सूर्य के दामन में भरी किरणे बेपनाह है
.
अपनी शर्त पे रौशनी को बांधना छोड़ दे
अपनी नजरो में नजारों को कैद न कर
अपनी भाव सीमा को कैद न कर छोड़ दे
.
गहराईऊंचाई का दिमागी हिसाब न रख
देह धरती से जुड़ नीचे को खींचती तो है
उन्नत उठती है ऊर्जा,अंतरिक्ष अगाध है
.
No comments:
Post a Comment