Friday, 3 April 2015

मंजिले और भी है


रे मंडूक ! कुँए से निकल नभ देख सही
अँधेरे में घुला उजाला, उतना ही नहीं है 
सूर्य के दामन में भरी किरणे बेपनाह है 
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अपनी शर्त पे रौशनी को बांधना छोड़ दे 
अपनी नजरो में नजारों को कैद न कर 
अपनी भाव सीमा को कैद न कर छोड़ दे 
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गहराईऊंचाई का दिमागी हिसाब न रख 
देह धरती से जुड़ नीचे को खींचती तो है 
उन्नत उठती है ऊर्जा,अंतरिक्ष अगाध है
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