अजीब है ज़िंदगी !
भ्रम का अथाह सागर
आस्था की छोटी नाव में बैठ
प्रेमलहरों में हिचकोले खाता हुआ -
छाया भासित प्रियतम के पीछे
मृगमरीचिका सी गंध पीछे भागता तो हूँ !
भ्रम की इस नगरी में
भ्रमों के साथ ही भ्रमित जीता-
भ्रमो के साथ ही पुनः सो जाता तो हूँ !
कुछ भ्रमों की खातिर फिर-
स्वप्नों से सुबह जागता हूँ , या के
कुछ जागा सा दिखता तो हूँ
कुछ सोया हुआ भी जरूर रहता तो हूँ !
किसी सच का फैसला
एकतरफा हो भी तो कैसे हो
या तो दोनों सिरों पे सच है
या फिर भ्रम ही भ्रम का साया है !
भ्रम जो सबमे प्रकाश दिखता है
मुझमें जैसा ही कोई सबमें रहता है
तुला का आधार बना मुझ जैसा
कसौटी पे खुद को जरूर कसता तो है !
हर कोई अधीर मुझ सा लगता
दिव्यता का दिया सभी में जलता तो है
सभी में शीतल जलधार का सोता है
भ्रम की हर एक की पीड़ा में
आस का दीप एक सा जलता तो है !
पल भर में सब में से होके
सब को खुद में समाना चाहता हूँ
इस तरह खुद को ही मैं
हर बार रत्ती रत्ती करता तो हूँ !
बेवकूफ बनने की ख़ातिर ही
सब तरफ अपने को लिये-लिये फिरता हूँ,
लेने देने का नाम अध्यात्म गुरु शिष्य
और यह देख-देख बड़ा मज़ा आता है
कि मैं बार बार खुद से ही ठगा जाता तो हूँ !
मेरे ही हृदय में प्रसन्नचित्त
एक मूर्खानंद बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण द्रवित कृतज्ञ सा
ध्यानी खुद में सूफी मत्त हुआ जाता तो है !
( प्रेरणा कवि गजानन माधव मुक्तिबोध से )
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