Friday, 3 April 2015

खामोश सदाये


खंडहर सुनाते है कहानियां अपनी बीती 
सुन पाओ तो सुन लेना, खामोश सदाये
.
ढलता-उगता सूरज समेटे कितनी गाथा
जीर्णवृक्ष पाश में सम्भली ढहती दीवालें
.
कभी लोग रहते थे यहां शानो-शौकत से
सन्नाटे गूंजते है, कहने लगी झड़ती ईंटें
.
नवाबी शान शौकत इमारतें गुलजार थी
रुकते-घूमते-गुजर जाते है जहाँ शौक़ीन
.
ख्वाहिश रंजिशों जज्बात ये ताना बाना
कुलबुलाहट का अगरबत्ती सा ..सुलगना
.
इंसानी फितरत समझके नासमझ होना
जिए जाते यूँ ज्यूँ जाना नहीं यहाँसे कभी
.
इतिह्रास आज को द्रौपदीचीर उढ़ाता रहा
गहनमौन वर्तमान भविष्य भी ठगासा है

No comments:

Post a Comment