Thursday, 4 December 2014

मुसाफिर !




यूँ  कुछ  नहीं हो जाता मुसाफिर 

सदियों में फासला तै किया होगा


होश  संभाल  के वो नूर रौशन है 

भावों  का जखिड़ा  बनने न पाये


भावों  के बहाव  को  जानो,यार ! 

रिश्ते  आंधियों से  उखड जायेंगे


खारे  सैलाब को बांध न मिलेगा 

प्रेम केआंसू भी ढाल नहों पाएंगे


कंधे पे नाहक  टंगे  इस झोले में 

कंकड़ पत्थर में यूँ समय न गवां


बे-मोल  सारी कवायतें, ग़ाफ़िल !

शहँशाएशान में तू अकेला काफी


उस के आगे नहीं इनका मोल है

यही छोड़ सब,आगे बढ़ जाना है



Om

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