कोई सगुन में रीझ गया कोई निर्गुण ठैराये
अटपट चाल कबीर की मुझसे कही न जाये !
अटपट चाल कबीर की मुझसे कही न जाये !
Kabir
भ्रम में ही थे दूर तक बुद्धि नैय्या खेने के बाद
मृग तृष्णा में फंसे थे सत्य के असत्य के बीच
हर एक भवन के मिलते उन्मुख खुले द्वार दो
भ्रम पलता सहीगलत द्वारा बौधिक प्रवेश का
एक ही द्वार से दोनों स-देह प्रवेश पाना असंभव
वस्तुतः कुछ प्रायोगिक भी तो नहीं हो सकता था
नेति नेति करते आँखों पे आस्था की पट्टी बांधे
हर दो द्वार एक से प्रवेश,दूजे को छोड़ना ही था
भ्रम को काटते हुए जब और जहाँ भी टिके रुके
अट्टहास करते भ्रम को अपने साथ सदैव पाया
फिर आभास का साथ शुरू हुआ,तो आराम आया
लगा अब भ्रम गया , अंततः उसेभी भ्रम ही पाया
निष्कर्ष जो हाथ आया फिलहाल है वो आभास का
भ्रम तो भ्रम आभास भी भ्रम का भाई ही निकला
वस्तुतः , सोच विचार , निर्णय चलने का आभास
किंचित मात्र भी है यदि शेष,यात्रा द्वित्व की ही है
टुकड़ों में बनता द्वित्व , अद्वित्व नहीं हो सकता
अद्वित्व, द्वित्व के छूते ही टुकड़ों में बिखर जाय
या बँटे बिखरे द्वित्व अस्तित्व पुनः अद्वित्व हो
एक ही भ्रम का पोषक सिक्का एक ही वंश के अंश
द्वित्वाद्वित्व से परे वो ऊपर प्रखर सौरमंडल में
ऊर्जापुंज केंद्रित हुआ वो मुस्कराता जाता पलपल
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