Wednesday, 31 December 2014

अंश -3 (end of 2014)

29 Dec 2014 

चमकते सूरज की रौशनी में कहाँ दिखाई पड़ोगी तुम !

छद्म रौशन चकाचौंध, शर्म से छिप जाओ तुम कहीं !!


The sun is rising,you may not more visible

illusive artificial lights go and hide yourself .



29 Dec. 2014 


floating upon history is not for me , 

future is unknown ...

those want to here n now , 


come and join ....

आज मैं खिला हूँ मधुमास है

सुगंध से भरा जीवन आस है 


कल की भूल गया, याद नहीं


कल का क्या होगा होश नहीं


23 Dec. 2014 


वक्त की रफ़्तार से चाल मिलाते 

ये अहसासों की बात है

जो अकेले में कारवां से और


भीड़ में खुद से जा मिलते है

04 Dec. 2014 


बहुत छोटी सी मुलाकात में, वो अहसास दे गया

जिंदगी क्या चीज़ है, बिन कहे कायनात दे गया !



02 Dec. 2014 


खँगालो अपनी यादों को कहीं ना शाम हो जाये 

पुराने खंडहरों में ही दबा हुआ गुफा का सुराग है !!



02 Dec. 2014 

Some one says some time :-

दिखाता हूँ चाँद , उँगली न पकड़ लेना

खेलते खेलते इसे ,खेल न समझ लेना


दीवानगी




मेरी कलम ! कहीं मुझे दीवाना न  बना दे 
रवायतों की दुनिया का निशाना न बना दे

मासूम दिल की तमन्ना है तुझसे जा मिलूं 
डर ये  रवानगी  मुझे  कहीं खुदा  बना दे !

खुद खुदा बनभी जाऊ रक्स होगा खुदी पे 
डर तेरी इबादत कहीं मुझे पत्थर न बना दे !

पत्थर भी बन जाऊँ तो शिकवा नहीं होगा 
शर्त ये पत्थर के सीने में गर आग जगा दे !

Tuesday, 30 December 2014

Shhhhhhhhh ! !




most  possible crisp deliver dialogue
shortest  possibly get in conversation
minimum involves in verbal conflicts
or   in   argumentative  conversations

always  be positivist  avoid negatives
always  prayerful  grateful  regardless
always beauty rest in heart; than mind
always plug-in connection with center

trial   inexpressive  forcee   expression
a  great  hurdle  in  one's life walk path
only  a lethargic fruitless long  process
mental popular game include tiring rest

Sunday, 28 December 2014

न जाने क्यों !


न जाने क्यों !

जरा ओट से पर्दा उठते ही 


नकाबपोश बेनकाब होते है 



न जाने क्यों ! 


चुप हो सही,जुबाँ खुलते ही 


दिल आईने से 
साफ़ होते है 



जाने क्यों !


चमन में गुलरंग महकते ही 


उस जन्नत
के करीब होते है

Friday, 26 December 2014

Horizon ( the edge )

If take "entrance" (duality) feel itself and trapped in "any"  single / multiple horizon (s),cos you sole responsible to create duality , the result ; you can not see the center's light and the wonderful connection among one to another  Center. Cos ; " any " horizon itself maaya bounded.....to cut maaya , do meditation ; the only remedy . 


-: Horizon:-
    (the edge ) 


Horizon is not only rest in between Sky and Earth
our body itself horizon among inner & outer world

Wholesome each senses horizon of our-self being 
each sense are horizon to each other with-in One..

What you know ! only sky and earth has horizone !
each cell of entire elemental body ve own horizon

Each road , village , each city and each state have 
each nation owning very egoistic beautiful horizon..

Horizon is that line which is not easy to go beyond 
Ultimate blessing naturally for & by vision of duality

wisdom eye

amaze to see through wisdom eye
no one is innocent, no one is pure

those in effort they able to get see
isolate with body rest in innocence

those Ignorant still, what say them
moving towards trench ; with smile

they're blessed who awaken in-last
the lost mind lives with heart forever

they are more blessed, who recover
after wake get involves to heal others


trans:- 
ज्ञान आंख के माध्यम से देख के विस्मित हूँ 
कोई भी शुद्ध नहीं है, कोई भी निर्दोष  नहीं है

देख पाने के प्रयास में जो हुए सक्षम
मासूमियत रहने के लिए  शरीर से अलग हुए 

अभी भी जो  अज्ञानी उन्हें क्या कहना है
खाई की ओर बढ़ रहे ; मुस्कान के साथ

जो जाग गए आशीष से भरे  वे धन्य है
मस्तिष्क खोने के बाद वे दिल के साथ रहते है 

वे अधिक धन्य हैं जो खो के  वापिस आये 

प्रतिबद्ध हुए जगाने और  स्वस्थ करने के लिए 

The Mirror




Real  or  unreal god knows 
or  those  illusive  behavior 

concern  myself  only as  "I"
such clever hypocrite minds

saying else and feeling else
rumi rest in fashionable treat

beneath politics lives in mind
quotes Ideology  express out

human inner  corrupt always
really tough innocence catch 

a personality shelter in covers 
self will combat actually inlast

trans:-

असली या असत्य भगवान जानता है
या उनका दोहरा  बाजीगर व्यवहार

अपनी चिंता विषय केवल "मैं" के रूप में हूँ 
ऐसे चालाक पाखंडी मन के विपरीत  

कुछ कहते है  और कुछ और ही सोचते है 
फैशनेबल इलाज रूप में रूमी उपयोगित 

राजनैतिक  मन  के  नीचे रहते  है  सदा 
विचारधारा उद्धरण व्यक्त मानसिकता 

मानव   का  अंतसमन भृष्ट हमेशा
वास्तव में अति कठिन मासूमियत पकड़

आवरण में एक व्यक्तित्व शरण लेता 
स्वयं से अंतिम श्वास में वास्तव में मुकाबला होगा !

Monday, 22 December 2014

खूबसूरत कलम से निकली गीली स्याही





खूबसूरत कलम से निकली गीली स्याही 

शब्द बन के उभरती है और सूख जाती है


छोटे  कदम घूमते घूमते यूँ बढ़ते जाते है 

कितने फेरे पग  में उलझते बनते जाते है


बढ़ने की रफ़्तार यूँही कायम रह चलती है

पीछे कुछ याद नहीं, आगे सुध न रहती है

Heart , Mind and " I "





O' mind (s),don't misunderstand heart (s)

don't be perspective judgmental always


Ur duality gives sides, true ! I'm The One 

heart says else, *you always ask to mind


Once break watermelon from middle point

look clear divided two sides of seed n pulp


Potential ve same in seeds and pulp is one

sweetener ve same in red n energy is one


In both pieces of red I'm in middle of veins

don't analyze the wounds, treat the wound


Don't count roses fallen causes pits of road 

correct the path on which you get wounded


*You - Blind Faith

फ़ॉल




फ़ॉल वो नूरे तरकश का सीने में अटक जाता है

 
 रूह को अजब सुकून आता है, खौफजदा हवाएँ -



 झझकोरती बामशक्कत करीब से गुजरती तो है 



  नूर की रहमत तले पंख से भी हल्के खामोश हम 



 तमाशाइयों के तमाशे  तमाशबीन  से रह जाते है

सत्य भ्रम

कोई सगुन में रीझ गया कोई निर्गुण ठैराये 
  अटपट चाल कबीर की मुझसे कही न जाये ! 
Kabir


भ्रम में ही थे दूर तक बुद्धि नैय्या खेने के बाद 
मृग तृष्णा  में फंसे थे सत्य के असत्य के बीच

हर एक भवन के मिलते उन्मुख खुले द्वार दो 
भ्रम पलता सहीगलत द्वारा बौधिक प्रवेश का

एक ही द्वार से दोनों स-देह प्रवेश पाना असंभव 
वस्तुतः कुछ प्रायोगिक भी तो नहीं हो सकता था

नेति नेति करते आँखों पे आस्था की पट्टी बांधे 
हर दो द्वार एक से प्रवेश,दूजे को छोड़ना ही था

भ्रम को काटते हुए जब और जहाँ भी टिके रुके 
अट्टहास करते भ्रम को अपने साथ सदैव पाया

फिर आभास का साथ शुरू हुआ,तो आराम आया 
लगा अब भ्रम गया , अंततः उसेभी भ्रम ही पाया

निष्कर्ष जो हाथ आया फिलहाल है वो आभास का 
भ्रम तो भ्रम  आभास भी भ्रम का भाई ही निकला

वस्तुतः , सोच विचार , निर्णय चलने का आभास 
किंचित मात्र भी है यदि शेष,यात्रा द्वित्व की ही है

टुकड़ों में बनता द्वित्व , अद्वित्व नहीं हो सकता 
अद्वित्व, द्वित्व के छूते ही टुकड़ों में बिखर जाय

या  बँटे बिखरे द्वित्व अस्तित्व पुनः अद्वित्व हो 
एक ही भ्रम का पोषक सिक्का एक ही वंश के अंश 

द्वित्वाद्वित्व से परे वो ऊपर प्रखर सौरमंडल में 
ऊर्जापुंज केंद्रित हुआ वो मुस्कराता जाता पलपल

Wednesday, 17 December 2014

नशा




कौन..किसको सम्भाले !  क्यों..कब संभाले के बीच !

डगमग कदमो के निशां बनाते  चल सको तो मिलो !!


खुद  नशे में इस कदर चूर साथी , कदम डगमगाते है !

तुम अगर हाथ पकड़ ऐसे ही साथ चल सको तो चलो !!



वायदा कुछ कर भी लूँ , तो ऐतबार मत करना क्यूंकि 


वायदों की मजबूत बुनियाद समंदर के ऊपर रक्खी है !



रुकना चाहूँ तुम्हारे सा
थ को अपना हाथ भी बढ़ा दू पर


लहरों बेमानी है ,इस भरोसे पे साथ चल सको तो चलो !



गजब देखी , समंदर में उतराती सतरंगी तश्तरी जैसी


मध्य "बिंदु" बना दोनों छोर पे कदम जमालो तो चलो !



नशा  द्वित्व में है जो हम तुम में , अद्वैतव में वो ही 

तुम  जिससे औ जैसे लिपट आगे बढ़ सको , तो चलो !

Monday, 8 December 2014

हंसपंख

श्वेत हंस पे सवार
साँसों..पे ..सारथी
साथी..विष.अमृत  
भरे छलिया उड़ान

नेह डोर बंधी संग 
लाये..यहां..उतार 
पंख उड़ा बार बार 
श्वांसों..का..नर्तन 
श्वांसो..की...ताल 
श्वांसो..का.दीपक 
श्वांसो..का..साज 
श्वांसों..का..थाल 

श्वांस सारथि संग 
छलेगा न अधिक ;
लो ! संज्ञानीज्ञानी 
अज्ञानी  भी  सभी 
श्वांस...डोर...छोड़ 
अकेले...उड़...चले 

श्वेत..हंस..पंख से
ढका नीला आस्मां
इस..आस्मां..ऊपर
भरावो जुगनुओं से  
चमकीले..से..कण 
लगते तो है सितारे 
नहीं नहीं ; हंसपंख

ले चल मुझे उसपार कहीं ........





जहाँ पत्ती की सरसराहट स्वर हो 
उस स्वर को सरगम का पता हो 
ले चल मुझे उसपार कहीं ........


सुगंध उड़ नासिका में प्रवेश पाये 
ह्रदय ताल बद्ध गीत गुनगुनाये 
ले चल मुझे उसपार कहीं ........


कृत्तियों की ख़ामोशी में क्रंदन न हो 
धरती की अंगड़ाईयों में, आंसू न हो 
ले चल मुझे उसपार कहीं ........

प्रारब्ध घूमता चक्र




बनाना है, बना दो 
चाहे, मिटा दो इसे 
प्रेम स्नेह  कर्त्तव्य 
लेन-देन...व्यापार 
निभादो या बहादो 

घृणा  द्वेष  संघर्ष 
रक्तपथ..दग्धपथ 
इस पार... आरपार 
जो करना है करलो
मूरख....अभिमानी 

परम सर्वगुण युक्त 
निर्लिप्त वो निर्मुख 
किन्तु  नहीं विमुख 
किसी कर्माचरण से 

कर्म की स्वतंत्रता है 
कर्मभोगस्वप्न नहीं 
फलाधिकारी स्व ही 
प्रारब्ध  घेरा कठिन 
कालचक्र  में घूमता 
सिधार्थ बन तोड़ना  
प्रारब्ध-घूमता चक्र

प्रज्ञावान मौन




यहाँ वहां बंटा बिखरा 
कितना सच  बाकी है 
आधेसच कहतेसुनते 
थकते नहीं ये  भागते 
मनबुद्धिजिव्हा क्या 
दो विश्राम,ठहरो यहीं 
इसी दिन पल घडी में 
आज अभी से यहीं से


दण्डित हो मौन भंग  
दो शब्दों के जोड़संग 
अनंत कर्मबन्धयोग 
यानि बुद्धि का तोड़  
बुद्धि  तरंग  विचार 
विचार  यानि  ध्वनि  
शब्द  युग्म के प्रदान 
से  होता  आदान शुरू 


जैसे शांत  झील  में  
कंकड़  का गिरते ही 
लहरे अनवरतबहती 
जब  तलक   दोबारा
झील पूर्ण शांत नहो   .

Sunday, 7 December 2014

बदस्तूर - सूफियाना स्वर




सूफियाना स्वर  बाबुलंद 
रूहानी हो सुनाई देते है !

गोलीबारूदों की गूँज तले 
चीखों का निग्रह क्या है !

पीर-पैगम्बर..के..कलमे
घंटे..घड़ियालों..की..गूंज

धमाकों..के..गुबार..संग 
बदस्तूर..बढ़ते..जाते..है 


Om

Saturday, 6 December 2014

राजा बेटा


राजा बेटा प्यारा बेटा
माँ  का  प्यार  दुलार

स्नेह, आशीष  तुम्हें
कठिनतम  राहों   पे
चलना यूँ  ही संभल

धैर्य का है आभूषण
साहस का हो  साथ
संकट में मित्र साथ 
धर्म पथ   कर्म पथ
एक मात्र  अपने  है

जा   मेरे   पुत्र   जा
अपने  पथ  पे   जा
किया   तुझे  तैयार
शुभेक्छा  तेरे साथ


(धर्म - उचित  अनुचित , कर्म कर्त्तव्य )

असीम  स्नेह

ॐ स्वागत तुम्हारा




तुम आये द्वार पे
अभिनन्दन, प्रिये !
आओ ! बैठो  जरा 
कोई अचरज नहीं 
तुम्हारे आगमन पे 

स्वागत तुम्हारा 
तुम न भी आते ,
तो क्या !
हमको आना ही था !

पता नहीं कुछ 
न पूछो ! 
निर्णय तुम्हारा ....!
नर्तन शायद बचा हो ..
शायद प्रदर्शन हो गया ...
थकन अभी आई नहीं ...

अंदर तो आओ
कुटिया में  बैठो
विश्राम कर ये
जल पियो .....
दीप बेला हो चली 
आओ बैठो  जरा 
अतिथि के  द्वार पे 
अतिथि स्वागत तुम्हारा 

क्या पूछा !  
मांग .... ! 
कोई इक्षा...! 
कोई मांग न  कोई इक्षा , 
नहीं... नहीं ......!
दिया तुमने जो ,
जी लिया 
अपूर्ण था नहीं 
पूर्ण ... भी ... सम्पूर्ण  हुआ !