Tuesday, 1 July 2014

ले भज गोविन्दम एक बार




रंगो  में न उलझिए  सुगन्धो में न रुकिए नजारो में न बंधिये
संगीत लुभाएंगे , राग उलझाएंगे ,वो गीत मनोहारी भर्मायेंगे


योग भोग से परे,कहने पे न जाइए, कुछ सुनने को न रुकिए
राहें भले हो बिखरी उलझी भरमाती , मंजिल सबकी एक है


रहिये , मछली समान गहरे जल में और कमलवत कीचड में
मनसा को हंसा मानिये ओ खूब विचरिये इस जग-उपवन में


दुनिया में सच की कमी नहीं जिधर देखिये बिखरे पड़े सच है
इतना ही कीजिये,आप अपने सच का दामन कस के थामिये


सोचना है खूब सोचिये कमबख्त नजरें हमारी ही थी जिनसे
अगले ही पल में जो सच थे वो सारे झूठ जाने कैसे बन गए !


खेळांवर! जितना चाहे खेलिए इस मति से मन और माटी से
खेल भी आपका खिलाडी भी आप ही हार-जीत दोनों में आप


देखने दिखाने पे कभी यूँ भरोसा न करना क्या कब दिख जाये
आधे सच झूठ का परिधान इधर मुड़े तो कभी उधर मुड़ जाये


एक शब्द औ एक हीआकृति तुमने कुछ देखा मैंने कुछ पाया
वो  भी कहाँ सच पूरा, नजरे पलटी, ये पलटा उधर वो पलटा


पलटना पलटाना भी अगर इतना ही हो तो भी मान भी जाऊं
नज़ारे बदले नजरों से,मन से बदली नजरे,मति ने बदला मन


इस मति को भी कहाँ आजादी इसको बदला खगोल-तारों ने
तारों की भी कहाँ मनमानी उनको बदल डाला उस विधाता ने


विधाता कहाँ खुदमुख़्तार खुद उलझा हुआ घटती घटनाओं में
घटनाएं हुई गुत्थमगुथा पासपास बनेबनाये मायावी जालों में


जितने चक्कर बाहर उससे ज्यादा फेरे बुद्धि के इस दर्पण में
उतने ही इस मन के घेरे उससे अधिक फेरे देती उसको माया


कहती जाती घुमो और कितना घूमोगे आओ तुम्हें घुमाती हूँ
नाचो कितना नाचोगे , अपने गीत पे आओ ! तुम्हें नचाती हूँ


देखो ! मुझसे नहीं पार पा पाओगे, मन बुद्धि के इस तांडव में 
छोड़ खेल खिलौने उलझन सुलझन, पकड़ चल ये ऊँगली थाम


बस चल पड़ मिला कदम तू मेरे साथ, हो जायेगा भवसागर पार
दुविधा जननी मनबुद्धि से परे हट, ले भज गोविन्दम  एक बार 





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