अंतहीन पीड़ाएँ अंतहीन खुशिया
बौराई मदमस्त अचेतन दुनिया
कैसा खेल कैसी माया कैसा जाल
पंछी उलझ हँसता तड़पता रोता
तेरी लीला अपरम्पार, रे ! विधाता
नादाँ परिंदे हँस -फसे मायाजालमें
दया निधान किसने ये नाम दिया
चाटुकारिता प्रेमी तू निर्दयी कठोर
ये कैसा अनसुलझा जाल अंतहीन
चलो जान भी लू और मान भी लूँ
पर फिर भी क्या तू दोषमुक्त हो
निश्चिन्त हो सकेगा अभिमानी
तुझे भी तो धरा पे आना ही होगा
अपना कर्म-क़र्ज़ चुकाना ही होगा
तू भी तो अपनी परिधि में घूमता है
दीनानाथ कैसा तू सबका तारणहार
या अपने रहम से ये दामन भर दे
या के फिर बिल्कुल दीवाना कर दे
दीवाना हो के देखूं इस जहाँ को मै
और दुनिया देखे मुझे बना दीवाना
इलाज बेइलाज ;बुत बनना रवायत
ये जान के विष का प्याला कैसे पी लूँ
कैसे पियूं हलाहल मै शिव भी नहीं
कैसे रोकूँ मदमस्तो को, विष्णु नहीं
ब्रम्हा भी नहीं रचना नयी बना सकूँ
जो थोड़ा दिया आभार, थोड़ा और दो
तार दो तारणहार इतना करो मान
दिव्यआलोक में बसा ,दो आलिंगन
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बौराई मदमस्त अचेतन दुनिया
कैसा खेल कैसी माया कैसा जाल
पंछी उलझ हँसता तड़पता रोता
तेरी लीला अपरम्पार, रे ! विधाता
नादाँ परिंदे हँस -फसे मायाजालमें