Friday, 25 July 2014

संध्या- ध्यान



साँझ की बेला , सुरमयी  लाली 
आकाश पे छायी  हलकी स्याही 

पंक्तिबध पाँखी जाते घर अपने 
सूने में कुछ तकते  नयन हमारे 

मायानगरी में  क्या सही  गलत 
क्या दुनिया में,क्या दुनिया पार 

आँखें बंद की सोचा, ध्यान लगा 
क्या है चक्र  औ  क्या ये दुष्चक्र

गोरखधंधा कैसे जानू क्या मानु 
ज्यादा देर  नहीं हुई समझने में 

सांसे ले चली जीवन के उस पार 
उस पार जाके मुड़ देखा इस पार 

पलटके अपने ही वजूद से मिली 
कैसे कहु,वे दो शब्द नहीं मिलते 

बस , देखा जो इक बार पलट के 
वो क्षण सब  दुविधा  मिट  गयी 

धर्म परिभाषा क्षण में बदल गई 
जात  की औकात  वहीं खुल गई  

आदम  की  नियत पे सवाल उठे 
बहते  समय  की पोल खुल गयी 

दानवों  के चहरे तो  साफ़ हुए ही  
देवता भी धरा के बेनकाब होगए 

औरभी कुछ सुनना चाहोगे क्या
देखा ! मिटटी  को मिटटी में पड़े 

रिश्ते  छूटते हुए, धागे टूटते हुए 
पलभर निभाते बस उस पल को

कर्म बंध में बहते उलझते रिश्ते 
मैंने देखा "उसे" जरा पीछे मुड़के 

देखा स्वयंको अग्नि में सुलगते 
राख हो रहा , साथ में बहुत कुछ 

विश्वास वो अहंकार रीतिरिवाज़ 
क्रोध लोभ मोह द्वेष  सुलग रहे 

वासनाएं चिंगारियां बन उड़ रही
जिंदगी का फल्सफा धुआं_धुआं  

नंगा सच था सामने  मैं निशब्द 
मैंने देखा "उसे" जरा पीछे मुड़के 

उस पल को जिया खुद को जाना 
ऊर्जा  बन ऊर्जा  को समझ पायी 

क्या अब भी कुछ समझना बाकी 
सच बना तार-तार खड़ा मेरा-तेरा 

ॐ 

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