Friday 18 July 2014

स्विप्निल और सच का संसार




from bottom of my heart  few lines  dedicated  to humanity  for truth and imagination .... 


प्यार ही प्यार है यहाँ आह ! खुश्बू ही खुशबू 
रंग बिरंगे फूल बाग़ खिले, न्यारी  फुलवारी

इंद्रधनुषी छटा  फैली  कहीं  बिना मौसम के
बालक्रीड़ा खिलखिलाहटें सुन खुश  था मन

शांत  हो  मोहक बना मन का सुन्दर आँगन
मनोहर बगीचा, चिड़िया उड़ती तितली संग

नींद लगी ही थी मद का नशा अभी हुआ था
भ्रमित मन प्रसन्न हुआ ही था सुंदरता देख

के दृश्य बदला वो दृश्य देख दहल गया दिल
निर्दोष चीख पुकारें सुन करुणा शर्मसार हुई

जितना सच था आधे से भी कम वो कह पाये
कैसे कहें वो तीव्र वेदना , युद्ध में जो जी  रहे

शब्द कैसे कह सकेंगे उस माँ के दर्द की व्यथा
अबोध आँखों के आगे बिखरे वो,जो टुकड़ो में

ऐसा लगता है प्यार प्यार मैं आगे से कह रही
पीछे से कोई शूल भोंक रहा , रक्त है रिस रहा

ओम शांति बोल रही हूँ पर अशांति का नग्न-
नृत्य  लाशों पे  निर्भीक _निर्वघ्न है चल रहा 

जीवन दिया  नहीं तो लेने का नहीं  अधिकार
कहती रही, ठीक पीछे लाशो का बिस्तर बना-

थाली में मांस खून का भोज बना, परोस दिया
आह ! अट्टाहस असुरों का फिर याद हो आया

ज्ञान ध्यान सिमित हो सहमा दानवता के आगे
शिव का तांडव,कृष्ण की बांसुरी ,राम का धनुष

त्रेता , सतयुग और द्वापर एकसाथ याद आया
एकसाथ याद आया , फिर एकसाथ याद आया




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सर्वे भवन्तु सुखिनः

सर्वे सन्तु निरामया

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु

मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत


ॐ 

 शांति शांति शांति 

Om

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