Thursday 24 July 2014

कृष्ण-नर्तन



पूछा था बस कि  जिसको ढूढ़ती हो
कहाँ  है वो ! अब  तक  मिला क्या !

देखा उसने ऐसे जैसे  देखे  दो बावरे
जिस की खोज में तकते थकते नैन

और नाचने  लगी  नाचती  ही गयी
धरती  सदृश बिन रुके घूमती गयी

ओस से पूरित द्वी कमलदल नयन
होंठ  मुस्कराते  ठहाके  लगाते  गए

सोच में पडा , फिर दोहराया खुद से
कहाँ  है  वो ! अब  तक  मिला क्या !

और  नाचने  लगा  नाचता ही गया
बिन रुके घूमती तक़्लीधरती सदृश

नाचते हुए मिले  सवालों के जवाब,
गति की गति* में ही है पूरा जीवन

यहीँ  समर्पण स्वीकृति और मुक्ति
यहीं कृष्ण नर्तन  में  जीवन_दर्शन

खोखी काठबांसुरी के सप्त छिद्र में
कृष्ण फूंके सप्तस्वर बन तानप्राण

सप्त छिद्र से सप्त स्वर बहे संगीत
सप्तद्वार भेदन पे होगई थैयाथैया 

राधा नाचे  गोपी संग  कान्हा नाचे
आह ! मैं नाचू, मेरे संग तू भी नाचे

सप्त स्वर चक्र जीवंत उपजा ज्ञान
अनहद गूंजे बावली बन मीरा नाचे

*गति की गति = गति जीवन की / गति प्रारब्ध की / गति कर्म की / गति भाग्य की , तुलनात्मक गति  धरती की आकाश और तारों की। 

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