Wednesday 9 July 2014

लेखनी ! कुछ तू ही बता के क्या लिंखू !



लेखनी ! कुछ तू ही बता के मैं क्या लिंखू 
अथाह प्रेमसागर में भावलहर उठती नहीं 

गीत जो मन को लुभाये, जुबा पे आते नहीं 
उथली चमक तन्हाई भरी भीड़ भाती नहीं 

मौन संवाद का मर्म और भी गहरा हुआ है  
संवेदनशीलता की तरंग वो मिलती नहीं है 

जीवन बना सरलतम  हैं भाव हुए सुगन्धित 
दीप प्रज्वलित पर अँधियारा घुलता नहीं है 

झरने नदी सागर छलछल कर बहते जाते 
खुशियो का बहता सिलसिला रुकता नहीं 

ज्ञान से संवाद करना हो तो कैसे क्या कहूँ 
आनंद का  बहता जल कभी  रुकता नहीं 

सोचती हूँ, अज्ञान से संवाद तो कैसा होगा 
कहेगा- तू कौन अंजान है पहचान नहीं है!

लेखनी बोली जान कवी हृदय कथा व्यथा 
थाम मुझे हाथ में स्याही ले कोरा पन्ना उठा 

लिख- करुणाधाम हृदय हो प्रेम का बसेरा 
ख़ुशी की बगिया में कोलाहल हो पाखी का 

लिख- जीवन बने सुगन्धित पवन का झोंका  
बहता बहता बन बैठे 'तारा' गगनमंडल का 
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2 comments:

  1. स्याही नही अब लेखनी मे, रक्त डाल तू ,
    शब्दों मे तीखे बाण की,अब धार डाल तू ..
    इस मौन होते देश को ,वाणी प्रदान कर ,
    ठंडे पडे इस देश को, अग्नि तू दान कर...
    लिख गीत एसे कपकपी, सत्ता मे आ सके,
    नव चेतना का जागरण ,जनता मे आ सके ..

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    1. Beautiful , written Naveen Tyagi Ji dhanyavad .

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