Monday 16 February 2015

मंडल के कमंडल"तुम्ही हो"




सत्य, प्रेम, सम्बन्ध, हानि और लाभ 
कर्म,भाग्य, सृजन संग विसृजन भी 

विश्वासों के भी घेरे और फेरे देखे है 

धरती साथ हमसंगी संग में घूम रहे 

सुनो ! यात्री ठहरे किस चक्र में हो !

घूमते मंडल के कमंडल "तुम्ही हो"


प्रतीकार्थ :-  * सत्य -  सच्  जानने  के लिए भटकते  जीव 
* प्रेम - वास्तविक  प्रेम की परिभाषा खोजता 
* सम्बन्ध - सांसारिक  अथवा परा  सम्बन्धी को श्रृंखला 
* हानि - सांसारिक  अथवा आध्यात्मिक हानि 
* लाभ - धन  सम्पदा  पद प्रतिष्ठा रूप  सौष्ठव आदि दिव्य अथवा सांसारिक लाभ 
* कर्म - कर्म बंधन सांसारिक अथवा विश्वास जनित  जन्मो से बंधे 
* भाग्य - पिछला ,  इस जन्म का अथवा  आगे का 
* सृजन - खोज नित नयी  , नित नए प्रयोग  खोज के 
* विसर्जन - समस्त भाव कर्मो का तर्पण करना 
* संग - साथ साथ समस्त उपरलिखित भाव भाव चलते हुए 
* विश्वास - अति विस्तृत  और अति सूक्ष्म , कथन से परे  अनुभव योग्य 
* घूमता  मंडल -  ब्रह्माण्ड , समस्त तारागण , सौरमंडल  अथवा  अपने ही अंदर वैसे ही चक्कर लगा रहे  तारागण के प्रतिबिम्ब  डीएनए 
* कमंडल - साधु का  धातु पात्र   जिसमे पवित्र जल भरा हो , अथवा  अद्वैत अर्थ में   ये शरीर कमंडल है जिसमे दिव्य जल भरा है 

इतना  पढ़ने के बाद  ध्यान में अनुभव कीजियेगा " जिसको ढ़ूँढ़ते थे  वो यही है इस पल में मेरी  अपनी  साँसों में गुथा हुआ है " अंतिम पायदान पे खड़े  इस ध्यान  भाव  के साथ कर्ता भी  हो  स्वाहा ! 

( मित्रों ! कविताये  सुगंध समान होती है , जिनको संवेदनशील के लिए सूंघना  आसान होता है जिनका व्याख्यान अति विस्तृत अक्सर असंभव , आधा कहा और आधा अनकहा )
Om Pranam

No comments:

Post a Comment