के इस
भाव-यज्ञ में
बैठ दो पल मौन
मंथर-गति-श्वांस
भावो की अग्नि तले
चक्री वातायन खुलते है
ध्यान का हवन जलता है
आहुतियां पड़ती एक-एक
रिसता गर्म-मोम गलता है
पिघल शमा तू, वो कहता है
पिघल शमा तू, वो कहता है
साफ़ होता धुलता चलता है
अंदर कुछ तो जो पिघलता है
पूछते वे, ये पिघलना कैसा !
होता क्या तपना तपन का !
कुछ संवरना होता है कुछ
ज्यादा निखारना होता है
पिघलना बड़ी बात नहीं
नन्हे पलों का हुजूम है
जतन से बड़ी लगन से
बस कुछ संजोना है
कुछ सिमटना है
कुछ धुआं होना
कुछ फ़ना
होना है
ॐ
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