Wednesday, 11 February 2015

मुसाफिर



ओ  . . .  मुसाफिर! 
पुराने  खंडहरों  से   
उजड़ी बस्तियों से ,  
बिखरे   पन्नो    से
या गुजरे समय  से , 
गर्त  के  कंकालों से  
सूख   चले  वृक्ष  से 
गंध दे  चुके फूल से 
उम्र  की  झुर्रियों से 
काव्य /  शास्त्रो  से 
पुरातन   चित्र   की 
धूमिल   रेखाओं से 
नृत्य   की   मोहक 
खोई   सी  विधा से 
क्या  ला  सकते हो 
कुछ    जिवंत    हो 
अभी   मरा   न  हो 
धीरे  धीर  से  सही
सांस  लेता  तो  हो 
या  के  हर बार सा 
बेजान    उठा   ला
थैला   काँधे   डाल 
अपने  भार से दबे 
वजन  से कराहोगे

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