ओ . . . मुसाफिर!
पुराने खंडहरों से
उजड़ी बस्तियों से ,
बिखरे पन्नो से
या गुजरे समय से ,
गर्त के कंकालों से
सूख चले वृक्ष से
गंध दे चुके फूल से
उम्र की झुर्रियों से
काव्य / शास्त्रो से
पुरातन चित्र की
धूमिल रेखाओं से
नृत्य की मोहक
खोई सी विधा से
क्या ला सकते हो
कुछ जिवंत हो
अभी मरा न हो
धीरे धीर से सही
सांस लेता तो हो
या के हर बार सा
बेजान उठा ला
थैला काँधे डाल
अपने भार से दबे
वजन से कराहोगे
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