Monday, 23 February 2015

बुध्ही-भाव के रंगे सियार


सिमित थी द्वैत में  परद्वंद्विता मेरी परालोचना तक 
अद्वैत में असीमित  हुई,मुझसे मेरी ही अंतरद्वंद्वितां  

स्व ही स्वयं  निर्माण करती खुद से खुद  सामना करती 
स्वयं निशाना बनती चुनौती लेतीदेती, मैं थी मेरे सामने





सात रंगों में रंगे
सबके भीतर बैठे 
इंद्रधनुषी सियार 
शेर की खाल ओढ़े
स्वतंत्र  विचरते
माटी की बाम्बी  में
और शेर थे अचंभित
अलग थलग डरे खड़े 
सशंकित किन्तु मौन !
बुध्ही-भाव के रंगे सियारों 
को ढूंढने के खेल  से दूर-
मध्य में खड़े हो, 
मस्तिष्क -दिल की रफ़्तार से परे हट ,
तनिक चित्त में स्थिर हो मद्धम शांत लौ जगा लेना ....

भीड़ में जाओ तो शोर से

सन्नाटे को अलग कर लेना .....
जंगलों में जाओ तो  सन्नाटो से
झींगुरों की गुनगुनाहट अलग कर लेना.....
रौशनी से  अंधेरों को अलग कर देखना
अंधेरो में जुगनुओं से रौशन लकीरों  से समझ लेना.....

गीत से बोलो को अलग कर देखना

साजों से उनकी धुन को हटा कर सुनना  
संगीत  से लय को  हटा थाप लेना 
चित्र से  रंगो को अलग कर रंग तरंग लेना 
किताबों से स्याही को मिटा श्वेतपन्नो को पढ़ लेना.....

विरोध के कणो को  मध्यम छिद्र युक्त

छन्नी से आहिस्ता से छान  सको  तो
स्वक्छ मध्य बिंदु भी मिल जायेगा
अत्तियों के  विरोध में तैनात खड़े सिपाही से
आभासो  भावनाओं  तर्कों को छान अलग कर  लेना.....

दौड़ का दूसरा नाम मिला वो जिंदगी है

बुद्धि ने बनाये  दो खम्बे का महल
खींचतान के एक छोर बाँध लटका दिया  ज्ञान पे
दूसरा  छोर अटका दिया भाव खूंटी पे
दिल दिमाग के बीच करे खुद ता ता  थईया
न ये, न वो छोर काम आया
बौद्धिक प्रपंच को बिन-चुन जीवनथाल से हटा लेना.....

दुनिया के मायावी खिलौने ,

सबको खिलाये , खुद भी खेले
रुपहले तार पे  भागता जाए
देह थके , पर मन  न टूटे 
करतब भर के  गुलाटी लगाये
आँखों से  भर भर नदी बहाये
युद्ध के पाठ यही पढ़ाये
नृत्य संगीत पे यही नाच नचाये
क्या क्या न इसने  खेल खिलाये
बुद्धि और भाव  की दौड़ को भी जरा समझ लेना.....

माटी की बाम्बी में रहते

इक्छा कामना के फूलते दल कमल
समुद्री  लहरों  सी शोर करती उठती गिरती
भाव बुद्धि के बलिष्ठ खम्भो से टकराती
सीमाविहीन वासनाये और -
थपेड़े न सह पाने के हालातों  में
बिना नीव का  महल  धड़ाम गिरा ,
धूलधूसरित माटी का अस्तित्व
बिखरा-टुटा और खूबसूरत जर्रा बन गया
बुद्धि भाव का था ताज + महल
आह !   यही तो खड़ा है  सत्य मध्य बिंदु पे
पूर्वभासी के आतुर प्रेमालिंगन को स्वीकार  कर लेना.....

सत्य खड़ा बिलकुल था उलट

परछाई सा साथ था वो हर पल !
लगता है  ये भी दृष्टि दोष ही है
सत्य परछाई है या के असत्य
असत्य जो चाल  बदलता गुलाटी खाता
जरा सोचो  !  भाव अपने , तर्क अपने  ,
सत्य असत्य के अंतर्द्वंद्व में कभी अटके
परिवर्तत -अपरिवर्तत को  नेति-नेति से अलग कर लेना...

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