Monday, 23 February 2015

सूफी हँसता !

*
नन्हा फूल खिल महका सूखा गिर पड़ा 
होता खामोश अंधेरो में 
लहर उठती जोर से किनारे पे खो जाती 
सूफी हँसता," क्यूँ सहमे-सहमे लोग "

*
जिस्म तो जिस्म सभीके राखतत्व है एक 
ताकतवर या कमजोर 
कत्लेआम करनेवाले मरनेवाले दोनों गए 
मस्ता हँसता," कित्ते हैं दीवाने लोग "

*
सूरज-चाँद-सितारे आते जाते बारी-बारी
दिनरात का चलता चक्का 
अस्तित्व बनता,जीवन मिटता देखदेख
सूफी हँसता," नाहक हैं परेशां लोग "

*
उसका अट्टहास आज भी गूंज रहा है 
खामोश वादियों में 
क्यों हँसता था वो ,आज भी सोच में है 
जोगी हँसता," कैसे ये दिमागी लोग "

No comments:

Post a Comment