Sunday 8 March 2015

अस्तित्व

यूँ  ही तो नहीं कहते बुद्धि युक्त ज्ञानी जन 
समस्त तारा समूह-तत्व 
का "मुझमे" वास है

मैं कौन हूँ ! सूर्यांश बुध्हि चन्द्रवास ह्रदय में है
पंच-तत्व निर्मित काया मेरी, 
हाँ ! मैं उर्जापुंज हूँ
ह्रदय-चाँद स्व-अस्तित्व-विहीन 
भावरूप हूँ यही नियत भाव मेरा 
मेरा जीवन दाता है सूरज प्यारा 
सूरज-साथ मुझेअच्छा लगता है 
किन्तु साथ होता न कभी हमारा 
.
अपनी धुरी अपनीअपनी परिधि 
एकदूसरे से बंधे आकर्षित हैं हम 
एक दूजे का रास्ता काटते भी है 
हमेशा की तरह आगे बढ़ जाते है 
उसी गोल चक्र में सदियों से हम 
.
अंतर्जगतविस्तार है बाह्यजगत 
एक बार फिर इसी सत्य के साथ 
पलपल घटतेबढ़तेअस्तित्व संग 
सूर्य के समक्ष दिन में उभरा चाँद 
प्रयासरत स्व चमक भी खो चुका 
कहते है ; वो ही अमावस रात्रि थी 
.
पूर्णिमा का भाव-चाँद है चमकता 
स्वयं धुरी पे टिका निरंतर घूमता 
काल-खंड का भाव-भाग्य विधाता 
स्वयंकोअपनी ही परधि पे संभाल 
निरंतर-घटताबढ़ता-नियंत्रणकर्ता 
अखिलविश्व को पूर्ण संतुलन देता

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