Wednesday, 4 March 2015

नन्हा अस्तित्व :और जब मैं चींटी था

नन्हा  सा अस्तित्व है मेरा 
हवा से उड़ता ,पानी पे  पड़े- 
हुए उस  सूखे पत्ते  पे बहता
बुलबुले  सा  बनता  फूटता...
नन्ही  चींटी सा  जन्म मेरा 
कभी  मक्खी  कभी  पतिंगे 
राह में रोक लेते थे  जबरन 
ठोकर से आहत,वजन नीचे 
झट दब के मर जाता था मै  
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

कद  बढ़ा , मेरा अनुभव बढ़ा 
गहरी श्वांस ! के  हूँ सुरक्षित
राहत सांस लेता किन्तु आह! 
आगे  बड़ी  ठोकरें  घनी खड़ी 
कुछ और बढ़ा  वख्त के साथ
पानीसंगृहीत हो तालाब बना 
अब पीछे के अनुभव  छोटे थे 
आगे तड़ाग झील नदीधारे थे 
बांध बना धीरे से चलते बढ़ते 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

वख्त के साथ कुछ कद बढ़ा 
अब तो समस्त वेदना स्थल  
छोटे थे जिन पे पुल बन चुके 
किन्तु ये क्या !आगे विशाल 
आगे विशालअगाध उफ़नता 
समंदर पर्वतखायी समेटे हुए  
पीछे विशाल हिमखंडशृंखला 
निरंतर वे बढ़तेबनते जाते थे 
औरबढता कद वख्त के साथ 
उसके  ऊपर आसमान गहरा 
असंख्यतारा -साम्राज्य फैला 
नीचे अँधेरा , ऊपर अँधेरा था 
चहु ओर अँधेरा ही अँधेरा था  
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

वख्त के  साथ  कुछ कद बढ़ा 
समंदर की विशालता ओझल 
पर्वत की गहरायी भी नगण्य 
वो खायी भी हुई  दृष्टि से दूर 
जगह क्या ये न ऊँचा न नीचे 
सब समान किन्तु पैमाने परे 
लट्टू से घूमरहे चमकते तारे 
असंख्य पृथ्वियां अवर्णनित 
आह !! असीमित अद्वितीय
उफ़ !! ये क्या है ! वो क्या है ! 
आभासित दृश्य अभी और है 
मंजिलें बाकी अभी और भी है 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

अब नहीं वो पूर्व सा जर्रा मैं !
बूँदभर जलसंग्रह से डरजाता  
कहाँ पर्वत खायी , वो समंदर 
हवा के झोंके से उड़ बिखरता
हलके  वजन से आहत  होता 
झीले  तालाब  नदिया डराती 
समंदर उन्नत लहरें हिलाती 
आज वे क्षुद्र हो चले , किन्तु 
आसमां  पे उड़ने  का हौसला  
आज  भी  संतुलित सा पाता 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं।

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