Wednesday, 18 March 2015

Cheers ! !





let's       come         on 

give       me         drink

your      bottle        big

tiny       glass      mine

your      wine      white

bubbly    and      shiny

pouring   thy     unruly

drink  autocratic  mine

कैंची-चाकू



भस्मीभूत होते कैंचीचाकू
लौह कणों ने सुलगते हुए 
जलते अंगारे बिखेरते हुए 
कहा अंतिम बार छिटकते................
.
सर्वदा से तू कैंची, मैं चाकू
समगुणरूप तरंगे वर्गीकृत 
शक्ति/लिंग/सौंदर्य/सौष्ठा 
फिर भी दौड़ते चलते संग.................
.
अज्ञानता नहीं परिलक्षित 
योजना-ही-योजना है यहाँ 
सफल-कामना में असफल 
बंटे औ भी बंटते जाते सब..................

आपाधापी



गुठी हुई रस्सी के 
उधड़े हुए धागे से 
धागे में दौड़ते हुए 
तरंग से बहते हम
.
बिखरे छितरे हुए 
चिटचिट आवाज 
तरंगो में बंटे हुए 
जीवनदौड़ में हम
.
चिंगारियों..सदृश 
उभरते औ मिटते 
सुलगते भस्म से 
दौडते इस छोर से 
उस छोर तक हम

होश कहाँ !






नशे में होश कहाँ है ! 
न जाने तुमने सुना
मैंने क्या कह दिया

कलम  बहकी  होगी 
स्याही को कैसे पता 
कि क्या लिखा होगा


Thursday, 12 March 2015

फिर भी अधूरा


प्रयासयुक्त रंगहीन रेखांकित चित्र है आधेअधूरे 

नृत्य की समस्त विधा, सरल-प्रवाह बिना अधूरी 


जितना सोचोगे अधूरी है कहनेसुनने  की परंपरा


जितना लिखोगे होंगे,
 शास्त्र और गीतबोल अधूरे

जितना  देखोगे मन को अतृप्त भयभीत पाओगे 


जितना संभवस्पर्श स्मृति-झोली में होगा ; आधा 


जितना जिव्हा प्रयासरत होगी , होगी कर्म युक्त


अथक भ्रमण बाद भी दो फ़ीट जमीं ही है पैरोंतले


बेचैन जी तो न सका, तू मर के भी मर न पायेगा

महलों के स्वामी सोता भी तू भय-भीत जगा हुआ 


भासता तो जागा सा परन्तु सोया है , चिरनिंद्रा में 


जागना ही तो जाग! हो जा उस महायोगी समदृश्


कि सोये भी तू यूँ नींद तेरी हो चिर जागृत तत्सम 


ओम 

Wednesday, 11 March 2015

घेराफेरा-यात्रा



बाल्य से वृद्ध तक फैले हुए है
यात्रा के अनगिनत सिलसिले
हर घेरे पे घूमते चक्कर काटते
होतेहुए युवा, युवा से प्रौढ़ होते
फिर वृद्ध, वृद्ध व्यतीत होते 

खेलते झगड़ते फिर मेल करते 
सम्बन्ध परिवार पड़ोस समाज 
मानसिकता अंतर्द्वद्व अधीन 
ये घेरा-यात्रा पूर्ण होती स्वयंसे 
बारबार यही दोहराती मिलती 
सच है 'यथा दृष्टि तथा सृष्टि'

फूल और कांटे



कहना   ना  सुनना  
स्वयं  मगन  रहना 
फातिया  न  पढ़ना
न मंत्र  जाप करना 
मध्य में लौ  स्थिर 
अनवरत है जलना 

लेना इक  न देना दो 
बोझ येअलग रखना
फूल-काँटा  कारोबार 
जुदाजुदा नहीं करना 
लेना है तो बीज लेना 
देना तो बीज ही देना

रोपना  तो  रोप बीज 
संजोना  बीज को  ही
फूल और कांटे अलग 
बोने से न उगा करते 
बबूल में फूल है उगते 
गुलाब में कांटे लगे है 

फूल से सुगंध बनाते 
काँटों से हथियार बने 
कर सदुपयोग "हीर" 
सतत  प्रयास  युक्त 
जीव सूझबूझ-जीना 

चलो थोड़ा घूम आये !



चलो पार्थ-बुद्धि संग बगीचा थोड़ा घूमआये करें सवारी टग्बक की खेंच कमान घोड़े की दूर तक सैर कर आएं . लेकिन भूल न जाना आभारदेना मयूर-मन हवा का ,फैले रंगो का सुगंध औ खुशियों का . लेकिन भूल न जाना बीज डालना धरती पे सरिता सुन्दर रखना पर्वत मनोरम रखना . लेकिन भूल न जाना खुशियों को..संवरना कंटक मध्य पुष्पसंग तितलियों का उड़ना

Monday, 9 March 2015

प्रिज़्म

These are look just more than big from life but itself emotions are nothing just prism of mind.So that;we should have to follower of beautiful rainbow colors of heart-path with keep in mind of all nothingness .


सूर्यसम तेजवान प्रखर किन्तु
कर्म अग्नि में पकती सुलगती
माया भ्रमित होती प्रखरबुद्धि
.
तराशा हीरा-मन तप से तप के 
प्रिज़्म बन गया भावनाओं का 
कह गया,' भावनायें उपस्थ्ति
.
सर्वत्र व्याप्त रंगो की समदृश् 
सूर्यकिरण बिन प्रकट भी नहीं '
स्वयं ही भावनाएं कहती जाती
.
"अपना अस्तित्व चंचलनदी है 
भावनाओं में बह..निर्णय लेना 
चाँद के चुस्त कपडे सिलाना है
.
किन्तु हूँ सारथी मैं भावरथ का
हे पार्थ , मैं ही सक्षम बताने में
दृश्य जो है ही नहीं, दिखाने में

रंग


हरसू यूँ नहीं फैले रंग ये 
अन्तस्तम का फैलाव है  
चन्द्र-किरण से शुभ्र हुए  
चाँदनी से सब  नहाये है  
आस्मां पे धनुष निखरा 
मेरे ही है रंग जो छाये है ....... 
.
घन बन आस्मां पे छाये 
जलकण रंग में लिपटे है 
सूर्य किरणों को समेटे है   
मेरे ही है रंग जो छाये है
शैलपुत्री से आशीष लेके 
फूलों को ये नहलाते हुए 
नदियों को सहलाते  हुए 
क्षीरकन्या से जा मिले है ............
.
प्रेम, संगीत, नृत्य,कला 
तरंग  बन बहते  डोलते 
मुस्कुराहटों में ही  नही 
आंसुओं में भी ये घुले है 
मेरे ही है रंग जो छाये है
जीवन बन के उभरे जो 
भावना में  बस खिले है ..............
.
जबभी दिखे ये ही दिखे 
जहाँ भी गए ये ही मिले 
सम्पूर्णता समग्रता  से 
रंगीं हृदयांश  समाये है 
मेरे ही है रंग जो छाये है 
ये इसपल की बात नहीं 
सदियों में फैले आईने है .............
.
Om Pranam

Sunday, 8 March 2015

अस्तित्व

यूँ  ही तो नहीं कहते बुद्धि युक्त ज्ञानी जन 
समस्त तारा समूह-तत्व 
का "मुझमे" वास है

मैं कौन हूँ ! सूर्यांश बुध्हि चन्द्रवास ह्रदय में है
पंच-तत्व निर्मित काया मेरी, 
हाँ ! मैं उर्जापुंज हूँ
ह्रदय-चाँद स्व-अस्तित्व-विहीन 
भावरूप हूँ यही नियत भाव मेरा 
मेरा जीवन दाता है सूरज प्यारा 
सूरज-साथ मुझेअच्छा लगता है 
किन्तु साथ होता न कभी हमारा 
.
अपनी धुरी अपनीअपनी परिधि 
एकदूसरे से बंधे आकर्षित हैं हम 
एक दूजे का रास्ता काटते भी है 
हमेशा की तरह आगे बढ़ जाते है 
उसी गोल चक्र में सदियों से हम 
.
अंतर्जगतविस्तार है बाह्यजगत 
एक बार फिर इसी सत्य के साथ 
पलपल घटतेबढ़तेअस्तित्व संग 
सूर्य के समक्ष दिन में उभरा चाँद 
प्रयासरत स्व चमक भी खो चुका 
कहते है ; वो ही अमावस रात्रि थी 
.
पूर्णिमा का भाव-चाँद है चमकता 
स्वयं धुरी पे टिका निरंतर घूमता 
काल-खंड का भाव-भाग्य विधाता 
स्वयंकोअपनी ही परधि पे संभाल 
निरंतर-घटताबढ़ता-नियंत्रणकर्ता 
अखिलविश्व को पूर्ण संतुलन देता

Saturday, 7 March 2015

ह्रदय चाँद,सूरज बुधिरूप

ॐ 

अग्नि  तत्व से नहायी उष्ण सुवर्ण धातु 
शीतल सौम्य चाँद समरूप चांदी किरण 
.
विश्व नहाया उष्मपीत श्वेतशीत ऊर्जा से 
प्रतीक बने तेज-पुरुषार्थ शांति-सौम्य का
.
ताल्लुक क्या भाव का रुपहली चांदनी से 
ओजस्वी सूर्य से बुद्धि का ताल्लुक क्या 
.
लुभाती चमकती श्वेत-शांत चन्द्र-किरण
प्रेरणा जीवन रूप , पीत उष्म सूर्य किरण 
.
सूर्य के ओज से अस्तिव में चांदनीचमक 
स्वयं वो टुकड़ा अन्यथा अस्तित्वविहीन 
.
अद्भुत भाव रूप जुड़ा  इस धरती तत्व से 
ओजसूर्यतारा,चांदताराचांदनी युक्त हुआ  
.
मेरे सभी कर्म सूर्य प्रेरित है जीवनदायी है 
अंतरात्मा-झील चांदनी से नहायी चाँद है 
.
चाँद सूरज दोनों का स-गुण मुझमे वास है 
सूरज तेजस बुधिरूप,स्त्रीरूप ह्रदय चाँद है
.
यूँ ही तो नहीं कहते बुद्धियुक्त ज्ञानीजन 
समस्त तारासमूह-तत्व का मुझमे वास है



सूरज से ऊर्जान्वित भाव-रूप धड़कता चाँद ये दिल
इसदिल की रौशनी से जो चमकी वो चांदनी हो तुम

प्रियतम  और प्रियतमा दोनो अर्धांश एक ही नूर के 
एक सूर्य बना चमका दूजा श्वेतशांत चाँद कहलाया 
.
सब हंसा मानस  ने पा लिया अपने  मानसरोवर में
विस्तार जगत का वही तो, प्रेममय विश्व कहलाया


Friday, 6 March 2015

राख कण


जंगल आग जल उठी 
लपटे उन्नत उठ रही 
किसी ने तपिश देखी
किसी ने सौंदर्य पाया 
किसी ने भय-भीत हो 
अग्निदेव दर्शन पाया 
किसी ने चित्रभाषा दी

कवि ने गीत गा डाला
किसीने वो धुआं देखा 
किसी ने भस्म बनती 
सुलगती हुई चटकती
लकड़ियों से उड़ते वो 
सुलगतेतैरते चमकते
राख - कण उड़ते देखे

और पाया नव जीवन 
देख मिटते तैरतेउड़ते 
चकमतेसुलगते शांत 
राख कणो को दोबारा 
धरती पे आ  समूह में 
इकठा होता राख - ढेर


उस  शांत  राख के ढेर 
से उड़  चले कुछ  कण 
हवा संग उड़ बह  गिरे 
पर्बत  शिला पे जा पड़े 
तरंगितनृत्य युक्त हो 
और मिले जा लहरों से 
कुछ बैठे जा बगीचे में 
सुगन्धितपुष्प हो उठे



Om

Wednesday, 4 March 2015

सात रंग : होली है !



जब आसमान रंगीन होता है
तो इन्द्रधनुष खिला कहते है 

जमीन जब रंगो से नहाती है  
बगीचों का कारोबार कहते है 

ये रंग गहरे दिलो पे पड़ते है 
लोग भावस्नान नाम देते है 

सात रंग में आत्मा डूबती है 
शृंगृत आत्मनववधु कहते है 

आपके सात रंग बन के जब 
जिस्मो को सतरँगीं करते है 

होली है ! लोग ऐसा कहते है 
होली है ! लोग ऐसा कहते है 

नन्हा अस्तित्व :और जब मैं चींटी था

नन्हा  सा अस्तित्व है मेरा 
हवा से उड़ता ,पानी पे  पड़े- 
हुए उस  सूखे पत्ते  पे बहता
बुलबुले  सा  बनता  फूटता...
नन्ही  चींटी सा  जन्म मेरा 
कभी  मक्खी  कभी  पतिंगे 
राह में रोक लेते थे  जबरन 
ठोकर से आहत,वजन नीचे 
झट दब के मर जाता था मै  
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

कद  बढ़ा , मेरा अनुभव बढ़ा 
गहरी श्वांस ! के  हूँ सुरक्षित
राहत सांस लेता किन्तु आह! 
आगे  बड़ी  ठोकरें  घनी खड़ी 
कुछ और बढ़ा  वख्त के साथ
पानीसंगृहीत हो तालाब बना 
अब पीछे के अनुभव  छोटे थे 
आगे तड़ाग झील नदीधारे थे 
बांध बना धीरे से चलते बढ़ते 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

वख्त के साथ कुछ कद बढ़ा 
अब तो समस्त वेदना स्थल  
छोटे थे जिन पे पुल बन चुके 
किन्तु ये क्या !आगे विशाल 
आगे विशालअगाध उफ़नता 
समंदर पर्वतखायी समेटे हुए  
पीछे विशाल हिमखंडशृंखला 
निरंतर वे बढ़तेबनते जाते थे 
औरबढता कद वख्त के साथ 
उसके  ऊपर आसमान गहरा 
असंख्यतारा -साम्राज्य फैला 
नीचे अँधेरा , ऊपर अँधेरा था 
चहु ओर अँधेरा ही अँधेरा था  
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

वख्त के  साथ  कुछ कद बढ़ा 
समंदर की विशालता ओझल 
पर्वत की गहरायी भी नगण्य 
वो खायी भी हुई  दृष्टि से दूर 
जगह क्या ये न ऊँचा न नीचे 
सब समान किन्तु पैमाने परे 
लट्टू से घूमरहे चमकते तारे 
असंख्य पृथ्वियां अवर्णनित 
आह !! असीमित अद्वितीय
उफ़ !! ये क्या है ! वो क्या है ! 
आभासित दृश्य अभी और है 
मंजिलें बाकी अभी और भी है 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

अब नहीं वो पूर्व सा जर्रा मैं !
बूँदभर जलसंग्रह से डरजाता  
कहाँ पर्वत खायी , वो समंदर 
हवा के झोंके से उड़ बिखरता
हलके  वजन से आहत  होता 
झीले  तालाब  नदिया डराती 
समंदर उन्नत लहरें हिलाती 
आज वे क्षुद्र हो चले , किन्तु 
आसमां  पे उड़ने  का हौसला  
आज  भी  संतुलित सा पाता 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं।

भावनाओं के सैलाब

भावनाओं को सैलाब यूँ तो नहीं कहा जाता
शोर जोर कुछ तो है जो तबाह कर जाती है

किनारों के टूटने से पहले लौहबंध डालदेना
मौसम बिगड़ने से पहले बाँध लेना, बेहतर!

बांधो न गर किनारो को स्वछंद इस नदी के
बूंदों के मौसम में किनारे भी बहा लेजाती है

समंदर मिलने से पहले ये लहरें ही डुबो न दें
संभल के चलाना नाव, के जल में हलचल है 

और उसने कहा



पूछा किसी ने अंतरंगता में उस से
कैसे जुडु मैं तुझसे !
उसने कहा-" शांत हो जा तू तो है ही
एक एक साँस देख.."

अचरज से कौतुहल लिए फिर पूछा
कैसे प्रेम करूँ मै !
उसने कहा-प्रेम में मेरी गहराई देख
और मेरी उंचाईं देख

कुलबुलाहट से फिर पूछा शांत साँसे-
प्रेम गहराई ऊंचाई !
उसने कहा - आँखे अपनी बंद कर ले
अंतरयात्रा मात्र एक

जिज्ञासा कहाँ शांत होती इस पल में
पूछा,'करके दिखा दो'
उसने कहा,'नेत्र मूंदते ही प्रलय होगी
ये योग कुछ अलग है'

लोक अँधेरा होगा मेरी अंतरयात्रा में
समस्त व्योम सोयेगा
मेरे अंतर्योग पूर्व सुझाव जागने का
मात्र अवसर जान ले

रक्तकण बन दौड़ता तेरी शिराओं में
मेरी शिराओं में दौड़ना होगा
यूँ श्वांस बन घुल चुका तेरे जीवन में
मेरी श्वांसो में घुलना होगा

योग जागरण से बस इतना जान ले
जीना मरना ही सीखेगा
जागरण-युक्त-जन्म जग में होते ही
स्वयंसिद्ध कहलायेगा

लौकिकसुप्ति अंतर्गामी अंतरआयामी
मौन तेरा वाणीयुक्त होगा
प्रेम,शांति,श्वांस,गहराई,ऊंचाई संबंध
का ज्ञान उसीपल में होगा

Monday, 2 March 2015

बुद्धिहीन मैं !





उस बुद्धिशील ने पूछा
रे पुष्प, कैसा ये मौन है
क्यूँकर तुझे ये मान है!
किसबात का अभिमान
जो इठलाता मुस्कराता
बिन बात , बिन कारण
सुनता नही कुछ कहता
सुगंध फैलाता जाता यूँ
अद्भुत गुण, अप्रतिम-
सौंदर्य पे इतराता जाता

बुद्धिहीन मैं! फूल हंसा
नहीं शब्द-भेद का ज्ञान
क्या ! क्यों ! कब ! कैसे
न मेरी प्रकति के साथी
प्रकृत जन्मता खिलता
पुनः प्रकति की गोद में
गिर जाता, समां जाता
जब जानता ही नहीं तो
मानूँ क्या ,जानू क्या !
मेरी भाषा कुछ और है
मौन प्रेमगंध भरपूर है

रे बुद्धियुक्त तार्किक!
सुनिश्चित करो रक्खो
गर्व के अनेकों अवसर
अभिमान के अधिकार
वितरण प्रसरण प्रचार
तुम्ही करो ये व्यापार !