Friday, 1 April 2016

योगी का शिवयोग


एक तू ही तो है जिसको समझे बिना जिया नहीं जाता 
चाहा तो जा सकता है, पर चाह के पूजा नहीं जा जाता
   {* तू (जिंदगी ).........* चाहा (इक्छा).........................*चाह ( आसक्ति)}

शीशें सी चाहतें पत्थर से टकरा के चूर चूर हो जाती है
रस्मो रिवाजो में जकड़ी दुनिया की तस्वीर ऐसी ही है

बिना जाने तुझे, अर्ध शिव सा हलाहल पी तो जाता है
हलाहल पी तो जाता है, नीलकंठ कहाँ बन वो पाता है

अधूरा त्रिशंकु लटका जीने की चाह में वापिस जाता है
वापिस जा वासना के पोतड़े में लिपट वापिस आता है
           { वापिस जाता - परम धाम , वापिस आता - संसारधाम}

खुद से दूर कर फैलाव-गर्भ में नटिनी खींचती जाती है
क्या सोच के आये थे ! तनिक उसका तो लिहाज करो

या यूँ ही बेहोश आये हो बेहोश ही रोरो के चले जाओगे
गर् कर्ज बोझ उतारना है खुद में उतर फैलना ही होगा

शीशे में ज्यूँ जाम गिरे, भव सागर में यूँ  उतरना होगा
स्वकेंद्र में उतर विष को मदिरा सा घूंटघूंट पीना होगा

सागरमंथ में मिले हीरे-जवाहरात याके तू भी, माया है
एक तू ही तो है जिसको योग से,योगी पूर्ण जी जाता है

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