Friday, 12 June 2015

धुल-कण सा मैं


बस वो पल  और जीवन के लिए 
भाषाअर्थ गीत मायने बदल गए 

ज्यादा नहीं, जरा ऊपर उठ  देखा 
खुद को  पड़ा  निर्जीव  धरती पर

किसी पेड़  से अलग हुए फूल सा 
मिटने  को और गलने को तैयार 

फर्क नही मुझमे, धुल के कण में 
दोनों एकसे समानांतर में थे पडे 

मेरे पास परिचित सूखे-पत्ते-मित्र 
कुछ सूखे  फूल , और लकड़ी ढेर 

यहाँ भी क़तार में पड़े पंक्तिबद्ध 
क्रम से अग्नि में पड राख हो गए  

सुना था आते जाते खाली है लोग 
क्या ले जायेंगे ! आज देख लिया 

नन्हे से जीवन में इत्ता बड़ा उपद्रव 
उफ़ ! ये मैंने जाना , जाने के बाद !

तुम भी जरा गाके देखो मधुर गीत 
स्वप्न में जी ले क्यूँ न ये चिरप्रीत  !

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