Wednesday, 10 June 2015

जिंदगी तू जिंदगी



तू नदी  सी तरल  बहती
कभी  सरस्वती शुष्क है 

बड़ी छोटी  गहरी उथली
सरल सी कभी गरल सी   

कभी  फूलों सी महकती 
नव खिलती,सूख झरती 

कभी  भाव  कभी  दर्शन 
कला तो  कभी  तत्वत्तव 

कभी अल्हड  कभी  धीर 
कभी कुमारी कभी  प्रौढ़ 

कभी योगी  का  संकल्प 
बन समर्पण  सिखलाती 

बिंधी राहें  स्वतः चलती 
भ्रम देती मेरे  चलने  का

विद्वान मुख से  झरती 
कभी भक्तधार से बहती 

तुझे जानना कठिन नही 
पर  समझना  खेल नहीं 

रेशे रेशे जर्रे जर्रे  छुपी है 
बिंधी  चादर से  फैली  है 

कई  परतों  में  उलझी है 
सुलझी सी है ना-सुलझी 

तू   जिंदगी ! ऐ  जिंदगी 

एक  पल में  बसी  रहती 
आदि अंत  कथा  कहती 

मुझे  मेरे  ही  जन्म  का 
संकल्प तू याद करवाती 

माया  से बचाने  के लिए
नित  नए  स्वांग  करती  

बचाने  को मृगतृष्णा से 
पहेली  बन  मौन चलती 

नीर पे  पदचिन्ह बनाती 
सखी  जिंदगी तू जिंदगी 

तू   जिंदगी ! ऐ  जिंदगी 

तू   जिंदगी ! ऐ  जिंदगी 

तू   जिंदगी ! ऐ  जिंदगी 


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