Saturday, 30 April 2016

नूतनयुग के खरपतवार

सन्दर्भ : बहुत पहले  मनुष्य  सभ्यता  विकास से  पहले , समूह बना  के   अपने  सुरक्षित करते प्रयासयुक्त  मनुष्य , प्राकर्तिक आपदाएं  मात्र डरातीं , ताकतवर  जंगली जानवर   छुपना  पड़ता था , बुद्धि के साथ  वास्तविक श्रम खुद को और  कमजोर  को  बचाने  में जाता , उस समय भौतिक  विकास न  कर पाने के कारण  कुछ न समझ पाने  के  कारण ज्यादातर आसमानी आपदाओं  से भयभीत , संयोग  प्रार्थना  भरे भाग्यवादी थे । कालांतर   में  बुद्धि के साथ अपना भी भौतिक विकास  हुआ तो  एक वर्तुल की दो  धाराएँ   विकसित  हुई , भाग्यवादी  और यथार्थवादी , दोनों  ही  बुद्धिमान , , दोनों सही , अपने अपने  मकतूल  ( विश्वास  दण्ड )  पकडे हजारो वर्ष  यात्रा कर के  आज  दोनों   कोल्हू के  बैल जैसे अपनी  परिधि  चक्कर काट रहे है , आज  और भी विकसित साये है , डराने  को जानवर और  प्रकर्ति कम है , इंसान ही  काफी है , अपने  बनाए धधकते विकसित जवालामुखी के ऊपर बैठे , बेखबर लावे  में  बगल वाले को धकेल रहे है , डरे भी है , प्रार्थनाएं  करते हुए , यथार्थवादी  मनुष्य कितना होशियार है ! कैसे कैसे यथार्थवादी विज्ञानं संग अपनी ही  मृत्यु  को  विकसित करता अपने ही  जीवन के  प्रति प्रार्थनावान आस्थावान धार्मिक है !  कैसे !  आप भी पढ़िए  अपने  दो  रंग  !

कविता : 

जंगल  में फिर आगलगी
सौ से अधिक गाँव दावानल में 

सागर में उठें विशाल लहरें
विकसित किनारे समाते जाते

धरती  डोली  पर्वत धंसते 
गाँव-गाँव मिटते गर्त में छिपते  


श्वेत सर्द बर्फ की वर्षा में  
दबते जमते सैकड़ों वर्ष बीतते 

इन से बचते बढ़ते हम 
इन्हीकी गिरफ्त के फंदे में बंद 

उपलब्धियो से सुसज्जित   
पञ्चापदाओं से बनातीं देह घर  

जल युद्ध्ह संभव हो चला   
आतंक में रहते शहर के शहर

लौह चिड़िया जो बन उडी 
नभआग उगलते अपने अस्त्र है

बर्फ का भी पिघलना शुरू 
ज्यूँ अंतिम गरुयुद्ध शुरू हुआ है 

अर्थ निकलते हैं अनर्थ के  
अग्नि जल ब्रह्मास्त्र बाण-वार

सतयुग-द्वापर के वीर   
नूतनयुग में खड़े ले खरपतवार

विकासशीलता हृदयहीनता
मानवसभ्यता नमन बारम्बार 
©  Lata 

Friday, 29 April 2016

अपने आधे -आधे को पूरा करता वर्तुल


                                     
एक लूप जब बन जाता है तो सब कहने  लगते  है
वो देखो ! फलाना !  कैसे कोल्हू के बैल सा घूम रहा है
गोल  गोल, अपनी ही धुरी पे  आधे आधे को पूरा करता !
इधर आधे पे खड़े आधे  दूसरे का अनुमान  भी नहीं होता !
फिसलन ऐसी की एक कदम उठाओ बाकि फिसलते  जाते है !
नदी  के किनारे हरी काई  की मोटी चादर  बिछी नर्म बिछौने सी 
इस पहले  को  अपने  ही  दूसरे कदम का अंदाजा भी  नहीं  होता !
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अब मासूम न समझिए शातिर क़दमों को, हस्ती को ही निरीह बना दें 
खूब खेले हुए है ये अकेलेरस्सी पे चलना भी इनको खूबआता है 
अनजाने  लगते  धक्के  से  मजबूर  है , वो ! करें तो क्या करें 
गेंद कीचड़ के उछालना जोर जोर से  इनको  भी आता है 
इस पार खड़े सब को इक इक कर फिसलते देख रहे थे
कि एक कदम तो साथ था, दूजा हवा में लहरा गया 
फिर तो छपाक से  कूद पड़े " हर गंगे " बोल के 
अपने आधे -आधे को पूरा करता वर्तुल 
कैसे ! किस्सा- ए - ड्रम बन गया 

                                     
                      ©  Lata   

Wednesday, 27 April 2016

योगिनी तू योगिनी

योगसंयोग के हो अद्भुत संगम
  तब कहीं जा प्रेम पुष्प खिलता है  




सात  रंग आसमां पे बिखरते ओ फूल खिलते है
नैसर्गिक संगीत बिखरता है,कहीं प्रेम पलता है (1)

लहरे यूँ ही मचलती जब उड़ते पक्षी चहचहाते है
सूर्यकिरण के पड़ते ही चोटी की बर्फ पिघलती है (2)

तब तुम ही तुम दिखते हो, हरसु  नर्तन करते हो
तब दसो दिशाएं गा उठती है योगिनी तू योगिनी (3)

योग औ माया से मिलबनी योगी की तू योगिनी
साम दाम दण्ड भेद  युक्त विचरती तू  तरंगिनि (4)

बिजली सी शक्तिवान सौंदर्य की वो बन दामिनी
योगिनी  तू योगिनी  है,  है  योगिनी तू  योगिनी (5)

लचक , मटक , लास्य नृत्यमग्न हुई तू भामिनी
योगिनी  तू योगिनी  है, है वैभवी  तू  ही योगिनी(6)

गर्भधारिणीमातृरूपाभगनीरूपापत्नीरूपासौम्या 
भाव में वास तेरा योगिनी,योग  की तू स्वामिनी(7)

विद्युत अबाध प्रवाह  तेरा मेघ  पे विचरण  तेरा
अच्युत सौंदर्य स्वामिनी हो  निर्झर  बरस जाती(8)

संसार  में उतरी नदी बन बह बलखाती निकलती
जीवन लेती  जीवन देती शक्ति रूपा तू  योगिनी(9)

भैरव की तू भैरवी तू ही नारायण की है नारायणी
स्त्री में तू भाव कोमल पुरुष के पौरुष में छिपी तू (10)

न देह धारी तू ! है  मायावी, शक्तिधारी तू  ठहरी
ओज में  वासित रज के कणकण में प्रवाहवाहिनी (11)

शिवा का अर्धांग तू ही अर्धनारीश्वर की शक्ति तू
आदि से जन्मी मिलन आदि में  महादेवी योगिनी (12)

एक ओंकार से प्रस्फुटित दो प्रेम ऊर्जान्वित धाराएं
देव-देवी शक्ति अपरम्पार तेरी योगिनी तू योगिनी (13)
** Yogini Tu Yogini is  a Total non-dual Identity  Neither Ugly  nor Beautiful , Neither Young  nor Old . Its Universal Spirit  of Femininity  . Always  present in the form of Beauty , In a form of Fragrance , in the form of Softness , in the form of giving Birth , In the form of Life , In a form of  Patience  and Love . In the form of  strong Tenderness , In the form of Compassion , Femininity present with Care and Concern  as Vibe as Frequency In rock-hardships for Body .

As a woman  feminine energy is entrusted with the significant responsibility of manufacturing the next generation , her body is far more receptive  naturally and vulnerable to certain types of energies – especially during pregnancy and menstrual cycles . Here is  Yogini is a Feminine quality  with all  strength of  Devi , out of an elemental body . She  is a power , She  is vibrational , She is Omnipresent in duality different forms of relations  . Due  to connecting  with highest Divine Vibes  she is A  ever virgin and Non-duel entity . So that ; in the form of Yogini The Adi shakti is worshiped 

सोन चिरैया उड़ चली (with english translation)

उड़ चली सोन चिरैया 
The golden bird flew away  

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सोन चिरैया उड़ चली
क्या खबर कहाँ चली
चोंच में तिनका सूखा
नन्हे डैनों में ले उड़ान
उड़ चली
सोन चिरैया उड़ चली............

The golden bird flew away
What to know ! of where ,
Picked dry straw in beak 
And flight on small wings 
Flew away... 
The golden bird flew away  

उड़ती पत्ती कहाँ की है
कहाँ का दाना चोंच में
नीड का है शिशु भूखा
जोश होश प्रेम है तान
उड़ चली
सोन चिरैया उड़ चली............

Twirls leaves  from where 
The grain comes from where 
The child is hungry in nest
Excitement awareness and love is song 
Flew away ...
The golden bird flew  away...  

कौन डाली कहाँ के फल
कौन सा वृक्ष भूली सब
मन की उड़न पंख बसी
यही हौसले तीर कमान
उड़ चली
सोन चिरैया उड़ चली...............

From where is of twig 
Fruits  come from where 
Mundane  flight resides on ala
Only  bow  & arrow  of the courageous 
Flew away ..
The golden bird flew  away ..   

मन का सुख कर्त्तव्य
देह कर्त्तव्य सुख बना
घर उसका निधिखान
तिनका तिनका ज्ञान
उड़ चली
सोन चिरैया उड़ चली.............

House is mine hunger is mine 
How I hide myself to me 
Which smell  comes from where 
Who is a garden! who is the gardener 
Flew  away ..
The golden bird flew  away...

नीड मेरा क्षुधा भी मेरी
अपने से क्या भेद करूँ
कौन गंध कहाँ से आये
कौन बाग़ ! माली कौन
उड़ चली
सोन चिरैया उड़ चली................


The conscious is happy In Duty 
The Body  become happy in Duty
Her house is abundance treasure 
And each grass becomes wisdom  
Flew away ...
The golden bird flew away ... 

कर्त्तव्य प्रेम हैं कण्ठाहार
मन आकुल कंठ से चूंचूं
देहमंदिर में लौ है सुलगे
जर्रा चमका ! हीरा जान
उड़ चली
सोन चिरैया उड़ चली.................

Love and Duty  are the garlands 
Maund is Uneasy , from throat comes 
out chun chun  (sound) 
In the body temple, there is small 
burning lamp  
Tiny particles shine ! know it Dimond !
Flew away ...

The golden bird flew away ... 


Friday, 22 April 2016

परछाईयों के शहर


Photo source ; Deva Premal and Miten

सच्चाईयों के शहर में सच्चाइयां न ढूंढ
जर्रे जर्रे में सच्चाईयों की पौध है,वृक्ष है 

बागीचे ताल नदी बावली और फव्वारे है 
खाद बीज फल फूल सच्चाई के लगते है 

सड़कों में चलते लोग सचके भागीदार है 
साझीदार! यहाँ पे कुछ झूठ भी है क्या?


या तो कहदो! झूठ के शहर में रहते झूठ
वोभी सच-झूठ का एक बढ़ा झूठासच है

जर्रे जर्रे में मिलते झूठ पौध और वृक्ष है 
फल फूल बीज खाद पानी हवा बेमानी है 

माया के महल बगीचे तालाब औ बावली 
झरने फव्वारे भी झूठ से झिलमिलाते है 


कह दो इन परछाईयों से इनके झूठे सच 
या इनके सच्चे झूठ को सच्चाझूठ जान 

जर्रे जर्रे में जी रही है परछाईयों की भीड़ 
परछाईयों के शहर की; परछाईयाँ न ढूंढ

सड़कों पे दिखते झूठ के सब भागीदार है 
साझीदार ! यहाँ पे कुछ सच भी है क्या ? 


Thursday, 21 April 2016

हवा ही हवा है


कभी सर्द कभी गर्म, कभी भीगी सी 
उबासी हवा है 
हवा गलियाँ चौबारे, हवा के शहर में 
दस्तक हवा है 
वख्ती गर्त में माशूक मौला,सन्नाटा   
कहती हवा है 

हवा के बागों के रंगी गुलों की दास्ताँ  
बयानें हवा है
हवा के शहर में ख़ुदा भी हवा है याके 
हवा ही ख़ुदा  है 
झिलमिल सपनो की नीवं में बसती   
हवा ही हवा है
पत्थर के जो दिखते,निकलते रेत के 
बवंडर हवा है 
धूलधुंध में अधूरेरिश्ते उड़ते पतंग से 
लहराती हवा है

अम्बर से छलके भरी सुराही, जमीं पे 
मधुशाळा हवा है 
उड़ते है पीने वाले , उड़ते पिलाने वाले 
मदमस्त हवा है
जमीं से आसमां तक छाया कालजाल 
हवा ही हवा है
इत उत डोलडोल गोलगोल घूमती जो 
हवा ही हवा है


सूखे पत्तों से सपनों को उड़ा देती ऐसी 
हवा देती हवा है
हरियाली में लचकती लहलहाती वो 
हवा ही हवा है
एक कुहक एक गर्ज गम्भीर;सभी में 
हवा ही हवा है
बिन टोक अंदर बाहर विचरे किले के 
मस्तानी हवा है

जाते कहती - भूत हूँ ! न  रुक  पाऊँगी 
आते बोले लो ! जाती हूँ
प्राण में हो रची बसी नजर न आये वो
मस्तानी हवा है 
कंठ देश से प्रकट छुईमुई सी आभासों 
में रहती हवा है 
क्यूंकि यहाँ से वहां तक हवा ही हवा है 
हवा ही हवा है 
अदृश्य के रहस्य भेदभेदनी अदृश्यिनी  
मायावी हवा है 

Tuesday, 19 April 2016

मेरा इन्तजार करना ..




प्रिय शाश्वत , प्रेम !
चिरयौवन आशीषयुक्त तुम
आश्वस्त हूँ मैं
कर्म-चक्र में घूमती
गतिशील हूँ,
गतियुक्त तुम भी ,
फिर भी
विश्वास पूरित हूँ ,
कहती हूँ
मिलूंगी ...... तुमको !
edited on 27 -06-2018
एक बार दोबारा वहीं 
जहाँ प्रेम के सरोवर में 
समाधि के कमल खिलते हैं,
जहाँ आनंद के लोक में 
उत्सव के दीप जलते हैं,
जहाँ जीवन के कैनवास पे 
शाश्वत के रंग बिखरते हैं…
जहाँ मौन के महासागर में 
शून्य की नाव तिरती है,
जहाँ मन के शिखरों पे 
करुणा की बदली 
घिरती और बरसती है,
जहाँ भगवत्ता के आयाम में 
अनुग्रह व अहोभाव की 
हवाएं बहती हैं...
साक्षी के आकाश में श्रद्धा का 
चन्द्रमा चमकता है...
जहाँ हर कण महकता है,
हर क्षण महकता है...
जहाँ जीवन बहता है-
समस्त विपरीतताओं को 
अपने में समेट कर,
जहाँ चिर पुरातन चिर नवीन 
सम्मलित नृत्य करते हैं 
वर्तमान के शाश्वत क्षण में...
देखो ! ऊर्जातन्तु के 
असंख्य चमकते धागों 
में उलझ उन अँधेरे में 
रुकना ! अकेले बढ़ न 
जाना ! मेरा इंतजार 
करना, सदियों के 
इंतजार बाद अगर
मिल जाऊं तो ! 
हाथ थाम लेना 
पूरे अहसास के साथ 
अधूरे अर्थों को पूरा करने 
जहाँ से जिस पल से 
हम साथ हुए थे कभी 
उस पल उस क्षण में 
उस जीवन में,मेरा "आज"
पल पल हौले हौले बहता है 
कहती हूँ मिलूंगी मैं तुमको 
वहीँ ! मेरा इन्तजार करना .. 

© Lata Tewari 18 /04 / 2016

योगी का भ्रम



लय  संगीत नृत्य संयुक्त

छम्छम् मोहिनी चलती है 

सूखे में जीवन जी लेती है 

श्वेतबर्फ में ऊष्मा देती है



योगी अंतस्थ ध्यान में है 

इंद्रियां अंतरधार से मिली

बाह्यनेत्रगर्वितंतस्स्थित 

बन बैठे अनुभव की खान


पर अंतर्मन बसी मोहिनी 

आधे अंग  का आधा भाग 

लहू में तरंग हो बन मिली

नटिनीनृत्ययुक्तभामिनि


मौन  बोल उठता भाव में 

कभी  चित्र नृत्य करते है 

पत्थरो से फूटे यूँ सरगम 

बूंदों से यूँ गीत टपकते है


मोहिनी तू ही है तरंगिनी 

तुझसे कौन अलग कब है 

रूप बदले योगीभोगी संग 

शिव की शक्तिअर्धांगिनी


कीचड़ में खिले कमल सी 

कंटक में महके गुलाब सी 

मेघों में चमकी तड़ित सी 

हृद्यलास्य बनी कामिनी


योगी का  तू यौगिक भ्रम

धनीमन में संविधानधन 

भग्व्ति युक्त भगवन वो 

शौर्यमें ओज वही नटिनी


संगीत हो बसे लयतान में 

प्रेमीमुख के छन्द में वोही

किसकोकरते अलगथलग 

बुन-उधेड क्या सम्भालोगे 


कण-कण, मन-मन में रहे 

तानबान क्रम जो खुद बुने 

रंगत हो चित्र में खुद उभरे 

हरी ॐ तत्सत ॐ हरी ॐ


रे वस्त्र !अथक प्रयासरत ! 

था करना,क्या कर रहे हो !

कहते हो कुछ नहीं चाहिए 

महल कौन सा बना रहे हो 


         ॐ हरी ॐ

Pranam

Tuesday, 5 April 2016

क्यूंकि आज



क्यूंकि आज 
उसका दिल और 
इसका दिमाग
मर रहा है थोड़ा थोड़ा 
सच ही कहा है 
एक देह में 
एक जीवन ! 
जोड़ा एक!
अधिक की जगह नहीं ,
प्रकति का 
मिज़ाज कहता है 
एक बने ही हो 
तो दो अलग कैसे !
एक संस्था 
एक दिमाग
एक दिल 
प्राकृतिक संतुलित है !
दोनों के दो दो  में से 
एक एक की विदा 
किस की देह से 
क्या निकलता है ! 
यहीं तो मर्म ठहरा 
संतुलित और सुंदर !

जब मैं

जब मैं वृक्षरूप बात कहता हूँ
शब्द विस्तार पाता हूँ !

जब में पुष्परूप बात करता हूँ
सुगंध स्वतः आती है !

और जब जड़रूप बात करता हूँ
गहन मौन छा जाता है !

फिर कोई फल इसी वृक्ष पे आ
चिड़ियों को बुलाता है !

चिड़ियाँ अपनी चोंच से फल से
कुछ बीज निकालती है

इन सफल असफल प्रयासों में
फूल इत्र बीज हाथ में

कुछ सुख धरती पे गिर जाते है
फिर से पौध बनने को

सब कुछ यूँ ही चलता रहता है
प्राकतिक क्रमबद्ध है

Saturday, 2 April 2016

आप्पै आप



भाव की लहरें,भाव की नाव 
भाव ही भूख, भाव ही गठरी 


नैनो के भाव,रंग में जा बसे
नासिकाभाव,सुगंध में छिपे 


हाथ के भाव,स्पर्श सुख कहे 
कर्णभाव संगीत में छिप रहे 


ह्रदयभाव प्रेम मेंछिप बैठ्या
शीर्ष भाव मद से जा मिल्या 


भाव के रंग , भाव की पथरी
भाव भाव संग,भाव न जानी 


खुद ही सिखवन सिखावंहार

तरते जाते खुद ही तारणहार 

कहे भाव भर गठरी तो खोल 

जा में छिपी , कौड़ी अनमोल

Friday, 1 April 2016

योगी का शिवयोग


एक तू ही तो है जिसको समझे बिना जिया नहीं जाता 
चाहा तो जा सकता है, पर चाह के पूजा नहीं जा जाता
   {* तू (जिंदगी ).........* चाहा (इक्छा).........................*चाह ( आसक्ति)}

शीशें सी चाहतें पत्थर से टकरा के चूर चूर हो जाती है
रस्मो रिवाजो में जकड़ी दुनिया की तस्वीर ऐसी ही है

बिना जाने तुझे, अर्ध शिव सा हलाहल पी तो जाता है
हलाहल पी तो जाता है, नीलकंठ कहाँ बन वो पाता है

अधूरा त्रिशंकु लटका जीने की चाह में वापिस जाता है
वापिस जा वासना के पोतड़े में लिपट वापिस आता है
           { वापिस जाता - परम धाम , वापिस आता - संसारधाम}

खुद से दूर कर फैलाव-गर्भ में नटिनी खींचती जाती है
क्या सोच के आये थे ! तनिक उसका तो लिहाज करो

या यूँ ही बेहोश आये हो बेहोश ही रोरो के चले जाओगे
गर् कर्ज बोझ उतारना है खुद में उतर फैलना ही होगा

शीशे में ज्यूँ जाम गिरे, भव सागर में यूँ  उतरना होगा
स्वकेंद्र में उतर विष को मदिरा सा घूंटघूंट पीना होगा

सागरमंथ में मिले हीरे-जवाहरात याके तू भी, माया है
एक तू ही तो है जिसको योग से,योगी पूर्ण जी जाता है