Sunday 3 September 2017

सम्भलो! हे पार्थ, समय की कमान से वो छूटा बाण


सम्भलो!हे पार्थ, धनुर्धर!हे धनञ्जय!
समय की कमान से, वो छूटा  बाण 
बंधन से मुक्ति!...स्वभाव से मुक्ति!
कल्पनाओ की तो कल्पना, न करो

जागृत या सुप्त दो अवस्था अनंत है 
सागर गंभीर! न उतारो नैया टूटी है 
ऊपर लहर में  वृत्ति, सहज दिखेंगी 
अन्तस् में सरल हो फिर से मिलेँगी

गहराई में! पुनः स्व-रूप बदल लेंगी 
लाखो तरंगे  उड़ती है, ग्रास लेने को 
इनके कंठ में उलझ अटक जाओगे 
स्वभाव है बंधन का, बंध ही पाओगे 

बंध में रूचि बाकी, रुक ही जाओगे 
ये नहीं वो सही , वो नहीं तो ये भला 
भागो जितना भाग सको पर देखना
कहीं न कहीं उलझा हुआ, पाओगे!

थक हार घुटने पे बैठ हाथ जोड़ के 
बोला- अब क्या करूँ तुम ही बोलो
क्या थक, हार मान, संग्राम छोड़ दूँ
अथवा ये कालवार मौन स्वीकार लूँ 

कृष्ण बोले सखा समय ऐरावत सम 
बलशाली न्यायप्रिय हस्ति-चाल मग्न 
मैं खुद उसके तीरों के आगे मौन हूँ
तुम्हारे पराक्रम समक्ष संसार झुका

किन्तु समयसंहार! न सोच धनञ्जय 
योगी उसके तीरों की चाल जान के 
बचाव के बाण अक्ष में छोड़ करके 
नतमस्तक हो आदर सहित भाव से 

समय के वार  सम्मुख शिरोधार्य हो 
उसके वार सभी अपनी देह पे लेंगे 
अटल तीरवार वीर को घाव भी देंगे  
पर मरहम भी उनकी नोंक पे होगा 

पर कान्हा ! मेरा तप मेरा शौर्य वीर्य 
और ये आत्मोन्नति की प्रयत्नशीलता
काल की मनमानी है दे जो बस सहुँ 
विरोधाभास भारी संशय मिटाये प्रभु 

सुनो पार्थ ! तुम सागर किनारे खड़े थे 
इक्छारूप नाव बनी अर्जित पौरुष से 
इस नईया पे सवार हुए ये पुरुषार्थ था 
ज्ञाननौका सतही लहरों पे खेई धैर्य था 

ऊपरी लहरे छोड़ नीचे डुबकी लगायी 
और नीचे उतर दूसरे ही तल को छुआ 
समयअनुकूल साथ था या प्रतिकूल था 
हे वीर! तुम्हारा ही तो संचित प्रारब्ध था 


समय से बाहर कहाँ कब ! मैं और तुम 
किन्तु प्रारब्ध के रचनाकार मैं और तुम 
इसी भाग्य चक्र नीचे पलते मैं और तुम 
पुनः पुनः वो ही कथा गढ़ते मैं और तुम 

प्रथम विस्फोट सृष्टि का समय का जन्म
किन्तुअब मैं भी समय के बंधन में ही हूँ 
समय के आह्वाहन पे आना ही पड़ता है 
फिर उसी समय से मुक्त हुआ, मैं ही हूँ 

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