Thursday 7 September 2017

समय और योगी की दृष्टि

इकदिन समय से मिल
निरंकुश उसे कहा मैंने
तुम तो सब जानते हो..
योजनाएं और सीमायें
तुम ही तो तै करते हो
तुम ही आभास बनके
प्रेरणा, बाद शक्ति हो
फिर क्यों है सब ऐसा
मोह जाल घना गहरा
बिरले तपस्वी को ही
चक्र से मुक्ति देते हो
समय ने कहा- यूँ सब
कह न सकूंगा तुमको
मात्र इक पल दूंगा, मैं
अपना लिबास तुमको
भावशक्ति कर्मशक्ति
तुम्हे सहज दिखाउँगा
ओढ़ देखा मैंने नजारा
सब मेरे हीआदेश की
प्रतीक्षा में, खड़े हुए है
ताराच्छदित व्योमसघ्न
मौसम औ तत्व देखते
पृथ्वीलट्टू चगनमगन
चाल मौसमी मिजाज
मेरे इशारे पे मोड़ लेते
मैंने देखे रोते बिलखते
इंसा जाते कोसते मुझे
समय ख़राब क्या करें!
कहना चाहा- 'मै नहीं'
पर वे शब्द प्रकट न थे
मैं था समय जो मूकथा
'मैं' प्रचुर शक्ति स्वामी
बेबस और असहाय था
बौद्धिक प्राणियों समक्ष
विस्तृतघनी वेदना जगी
दिया दृष्टिदान, एक को
शक्ति, दूजे को दे प्राण
असमय दृष्टि से लोलुप
शक्ति दान से अहंकार
प्राण नेअमृत्व भाव भरे
अपने कर्म फ़ल के घेरे
उन्होंने और गहरे किये
मैं समय थोड़ा थका तो
न हारा! वर्तमान सूत्र दे
भूत भविष्य दर्शन दिया
अकर्मी थे भग्याधीन भी
अब अंधविश्वासी भी हुए
कोसते जाते निरंतर मुझे
असमंजस में करूँ क्या!
जो इनका भ्रम तोड़ सकू
बुद्धि योजना जाल समक्ष
मैं शक्तिहीन, कैसे कहूं !
मुझे नहीं ! बुद्धि भाव को
एक संग ही कटना होगा
फिर देखा-एक अनुभवी
कसौटी पे कस जो बढ़ा
वो मेरी भाषा देख समझ
मुस्कराया बोला - दोस्त
करुणा औ विवशता संग
समझा मैं दुविधा तुम्हारी
अनुभव यहाँ ये कहता है
समय औ अनुभव से पूर्व
सीख संग शास्त्र व्यर्थ है!
वे अच्छे! जिन्हे ज्ञान नहीं
कमस्कम, शांति भाव से
आत्मा यात्रा तो करती है!
जानने और ज्ञान नीचे तो
असमय दब मर जाती है
ये बौद्धिक भाव जगत है
स्वयं को कम तुम्हे दोषी
ठहरा,जीवन शक्ति बढ़ा
तुम्हे बांधने प्रयत्नशील है
किस चक्र में उलझे प्रिय
समझ के वोही कहता हूँ
सब उस समय पे छोडो
कह मुस्करा वो बढ़ गया
मैं अवाक् खड़ा रह गया
मैं समय! मुझसे भी आगे
निकल गया, वो योगी था
अति निर्बल, अति शक्ति
स्वअत्तियों में ही संतुलित
काल लट्टूअपनी धुरी पे
सूंड से धूल फेंकता पीछे
असहाय हूँ...कहता हुआ
ऐरावतसमय यूँ चल पड़ा
और मैं ! किंकर्तव्यविमूढ़
समय को वस्त्र वापिस दे
बहुत कुछ समझा, जाना,
मान के, मूक उतर आया
देह में, अपनी साधना में,
अनुभव की इस यात्रा में
इक युग से उस पलदान
तथा दिव्य-दृष्टि-मान का
अनुग्रहित हूँ , कृतार्थ हूँ!
समय पे , समय के भोग
उपभोग लेता-देता हुआ
बाँध समय को, मैं बंधक
देह-ऋणी हूँ , राहगीर हूँ

Author Note - this very first look, of time and his boundings and limits, from The Time and The sight of The Yogi

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