Monday 8 August 2016

सिरजनहार "मौन" (मीरदाद के गीत)


Creative  "Silence" 

         मौन -अनअस्तित्व को
         अस्तित्व में बदल देगा
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     अध्याय 12
      सिरजनहार मौन
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नरौन्दा: जब तीन दिन बीत गये तो सातों साथी,
मानो किसी सम्मोहक आदेश के आधीन,
अपने आप इकटठे हो गये
और नीड़ की ओर चल पड़े।
मुर्शिद हमसे यों मिले जैसे
उन्हें हमारे आने की पूरी आशा हो।
मीरदाद: मेरे नन्हे पंछियों……
एक बार फिर  मैं तुम्हारे नीड़ में
तुम्हारा स्वागत करता हूँ।
अपने विचार और इच्छाएँ
मीरदाद से स्पष्ट कह दो।
मिकेयन: हमारा एकमात्र विचार
और इच्छा मीरदाद के निकट रहने की है,
ताकि हम उनके सत्य को महसूस कर सकें
और सुन सकें;
शायद हम उतने ही छाया-मुक्त हो जायें
जितने वे हैं।
फिर भी उनका मौन हम
सबके मन में श्रद्धामिश्रित
भय उत्पन्न करता है।
क्या हमने उन्हें किसी
तरह से नाराज कर दिया है?
मीरदाद: तुम्हे अपने आप से दूर हटाने के लिये मैं तीन दिन मौन नहीं रहा हूँ,
बल्कि मौन रहा हूँ
तुम्हे अपने और अधिक
निकट लाने के लिये।
जहां तक मुझे नाराज
करने की बात है,
याद रखो जिस किसी ने
भी मौन की अजेय शान्ति
का अनुभव किया है,
उसे न कभी नाराज किया जा सकता है;
न वह कभी किसी को नाराज कर सकता है।
मिकेयन: क्या मौन रहना बोलने से अधिक अच्छा है?
मीरदाद: मुख से कही बात अधिक से अधिक एक निष्कपट झूठ है; जबकि मौन कम से कम सत्य है।
अबिमार: तो क्या हम यह निष्कर्ष निकालें कि मीरदाद के वचन भी, निष्कपट होते हुए भी, केवल झूठ हैं?
मीरदाद: हाँ..
मीरदाद के वचन भी उन
सबके लिए केवल झूठ हैं,
जिनका ”मैं” वही नहीं जो मीरदाद का है।
जब तक तुम्हारे सब विचार
एक ही खान में से
खोदकर न निकाले गए हों,
और जब तक तुम्हारी सब कामनाएँ
एक ही कुएँ में से खींचकर न निकाली गई हों,
तब तक तुम्हारे शब्द,
निष्कपट होते हुए भी झूठ ही रहेंगे।
जब तुम्हारा ”मैं और मेरा ”मैं” एक हो जायेंगे,
जैसे मेरा ”मैं” प्रभु का ”मैं” एक हैं,
हम शब्दों को त्याग देंगे
और सच्चाई-भरे मौन में भी
खुल कर दिल की बात करेंगे।
क्योंकि तुम्हारा ”मैं” और
मेरा ”मैं” एक नहीं है,
मैं तुम्हारे साथ शब्दों का
युद्ध करने को बाध्य हूँ,
ताकि मैं तुम्हारे ही शस्त्रों
से तुम्हे पराजित कर सकूँ
और तुम्हे अपनी खान और
अपने कुएँ तक ले जा सकूँ।
और केवल तभी तुम संसार में
जाकर उसे पराजित करके
अपने वश में कर सकोगे,
जैसे मैं तुम्हे पराजित करके
अपने वश में करूंगा।
और केवल तभी तुम इस होगे
कि संसार को परम चेतना के मौन तक,
शब्द की खान तक,
और दिव्य ज्ञान के कुएँ तक ले जा सको।
जब तक तुम मीरदाद के हाथों
इस प्रकार पराजित नहीं हो जाते,
तुम सच्चे अर्थों में अजेय
और महान विजेता नहीं बनोगे।
न ही संसार अपनी निरंतर
पराजय के कलंक को धो सकेगा
जब तक कि वह तुम्हारे हाथों
पराजित नहीं हो जाता।
इसलिए, युद्ध के लिए कमर कस लो।
अपनी ढालों और कवचों को चमका लो
और अपनी तलवारों और भालों को धार दे दो।
मौन को नगाड़े की चोट करने दो
और ध्वज भी उसी को थामने दो।
बैनून: यह कैसा मौन है
जिसे एक साथ नगाड़ची
और ध्वज-धारी बनना होगा?
मीरदाद: जिस मौन में मैं तुम्हे ले
जाना चाहता हूँ,
वह एक ऐसा अंतहीन विस्तार है
जिसमे अनस्तित्व अस्तित्व में बदल जाता है,
अस्तित्व अनस्तित्व में।
वह एक ऐसा विलक्षण शून्य है
जहाँ हर ध्वनि उत्पन्न होती है
और शान्त कर दी जाती है;
जहाँ हर आकृति को रूप दिया जाता है
और रूप-रहित कर दिया जाता है;
जहाँ हर अहं को लिखा जाता है
और अ-लिखित किया जाता है;
जहाँ केवल ‘वह’ है,
और ‘वह’ के सिवाय कुछ नहीं।
यदि तुम उस शून्य और
उस विस्तार को मूक
ध्यान में पार नहीं करोगे,
तो तुम नहीं जान पाओगे
कि तुम्हारा अस्तित्व कितना यथार्थ है,
और तुम्हारा अनस्तित्व कितना कल्पित।
न ही तुम यह जान सकोगे
कि तुम्हारा यथार्थ
सम्पूर्ण यथार्थ से कितनी दृढ़ता से बँधा हुआ है।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में भ्रमण करो
तुम, ताकि तुम अपनी पुरानी तंग केंचुली
उतार दो और बंधन- मुक्त,
अनियन्त्रित होकर विचरण करो।
मैं चाहता हूँ की इसी मौन में बहा दो
तुम अपनी चिताओं और आशंकाओं को,
ताकि तुम उन्हें एक-एक करके
मिटते हुए देखो
और इस तरह अपने कानों को
उनकी निरंतर चीख-पुकार से छुटकारा दिल दो,
और बचा लो अपनी पसलियों को
उनकी नुकीली एड़ों की पीड़न से।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में फेंक दो
तुम इस संसार के धनुष्य-बाण
जिनसे तुम संतोष और
प्रसन्नता का शिकार
करने की आशा करते हो,
परन्तु वास्तव में अशांति
और दुःख के सिवाय और
किसी चीज का शिकार
नहीं कर पाते।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में
तुम अहं के अँधेरे और
घुटन-भरे खोल में से
निकलकर उस ‘एक अहं ‘
की रौशनी और
खुली हवा में आ जाओ।
इस मौन की सिफारिश करता हूँ मैं तुमसे,
न की बोल-बोल कर थकी
तुम्हारी जिव्हा के लिये विश्राम की।
धरती के फक दायक मौन की
सिफारिस करता हूँ मैं
तुम से, न कि अपराधी
और धूर्त के भयानक मौन की।
अण्डे सेनेवाली मुर्गी के
धैर्य पूर्ण मौन की
सिफारिश करता हूँ मैं तुमसे,
न कि अण्डे देनेवाली
उसकी बहन की
अधीर कुडकुडाहट की।
एक इक्कीस दिन तक इस
मूक विश्वाश के साथ अण्डे सेती है
कि उसकी रोएँदार छाती
और पंखों के नीचे वह
अदृश्य हाथ करामात कर दिखायेगा।
दूसरी तेजी से भागती हुई
अपने दरबे से निकलती है
और पागलों की तरह
कुडकुडाती हुई ढिंढोरा पीटती है
कि मैं अण्डा दे आई हूँ।
डींग मारती नेकी से खबरदार रहो,
मेरे साथियों।
जैसे तुम अपनी शर्मिन्दगी का
मुँह बन्द रखते हो,
वैसे ही अपने सम्मान का मुँह भी बन्द रखो।
क्योंकि डींग मारता सम्मान
मूक कलंक से बदतर है;
शोर मचाती नेकी गूँगी बदी
से बदतर है।बहुत बोलने से बचो।
बोले गये हजार शब्दों
में से शायद एक,
केवल एक, ऐसा हो जिसे
बोलना सचमुच आवश्यक है।
बाकी सब तो केवल बुद्धि
को धुँधला करते हैं,
कानों को ठसाठस भरते हैं,
जिव्हा को कष्ट देते है,
और ह्रदय को भी अन्धा करते हैं।
कितना कठिन है वह शब्द बोलना
जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है!
लिखे गए हजारों शब्दों में से शायद एक,
केवल एक, ऐसा हो जिसे लिखना
सचमुच आवश्यक है।
बाकी सब तो व्यर्थ में
गँवाई स्याही और कागज़ हैं,
और ऐसे क्षण हैं
जिन्हें प्रकाश के पंखों की
बजाय सीसे के पैर दे दिये गये हैं।
कितना कठिन, ओह,
कितना कठिन है वह शब्द लिखना
जिसे लिखना सचमुच आवश्यक है!
बैनून: और प्रार्थना के बारे में क्या कहेंगे,
मुर्शिद मीरदाद? प्रार्थना में हमें
आवश्यकता से कहीं अधिक से कहीं
अधिक शब्द बोलने पड़ते हैं,
और आवश्यकता से
कहीं अधिक चीजें माँगनी पड़ती हैं।
किन्तु माँगी हुई चीजों में से
हमें शायद ही कभी कोई प्रदान की जाती है।

   

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