Monday 29 August 2016

महत्त्व शब्दों का नहीं महत्व भावना का है जो शब्दों में गूंजती है (मीरदाद के गीत)


अध्याय 23 
महत्त्व शब्दों का नहीं महत्व भावना का है जो शब्दों में गूंजती है
" मीरदाद सिम-सिम को ठीक करता हैऔर बुढापे के बारे में बताता है”
नरौन्दा: नौका की पशुशालाओं की सबसे बूढ़ी गाय सिम-सिम पांच दिन से बीमार थी और चारे या पानी को मुंह नहीं लगा रही थी। इस पर शमदाम ने कसाई को बुलवाया। उसका कहना था कि गाय को मारकर उसके मांस और खाल की बिक्री से लाभ उठाना अधिक समझदारी है, बनिस्बत इसके कि गाय को मरने दिया जाये और वह किसी काम न आये। जब मुर्शिद ने यह सुना तो गहरे सोच में डूब गये, और तेजी से सीधे पशुशाला की ओर चल पड़े तथा सिम-सिम के ठिकाने पर जा पहुंचे उनके पीछे सातों साथी भी वहां पहुँच गये।सिम-सिम उदास और हिलने-डुलने असमर्थ-सी थी।उसका सर नीचे लटका हुआ था, आँखें अधमुँदी थीं, शरीर के बाल सख्त और कान्ति-हीन थे। किसी ढीठ मक्खी को उड़ाने के लिये वह कभी–कभी अपने कान को थोड़ा सा हिला देती थी। उसका विशाल दुग्ध-कोष उसकी टांगों के बीच ढीला और खाली लटक रहा था, क्योंकि वह अपने लम्बे तथा फलपूर्ण जीवन के अंतिम भाग में मातृत्व की मधुर वेदना से वंचित हो गई थी। उसके कूल्हों की हड्डियाँ उदास और असहाय, कब्र के दो पत्थरों की तरह बाहर निकली हुई थीं। उसकी पसलियाँ और रीढ़ की हड्डियाँ आसानी से गिनी जा सकती थीं। उसकी लम्बी और पतली पूंछ सिरे पर बालों का भारी गुच्छा लिये अकड़ी हुई सीधी लटक रही  थी। मुर्शिद बीमार पशु के निकट गये और उसे आँखों तथा सींगों के बीच और ठोड़ी के नीचे सहलाने लगे।कभी-कभी वे उसकी पीठ और पेट पर हाथ फेरते। पूरा समय वे उससे इस प्रकार बातें करते रहे जैसे किसी मनुष्य के साथ बातें कर रहे हों :
मीरदाद: तुम्हारी जुगाली कहाँ है,
मेरी उदार सिम-सिम?
इतना दिया है सिम-सिम ने कि 
अपने लिये थोड़ा-सा जुगाल रखना भी भूल गई। 
अभी और बहुत देना है सिम-सिम को।
उसका बर्फ-सा सफ़ेद दूध
आज तक हमारी रगों में गहरा लाल रंग लिये दौड़ रहा है।
उसके पुष्ट बछड़े हमारे खेतों में भारी हल खींच रहे है
और अनेक भूखे जीवों को भोजन देने में हमारी सहायता कर रहे हैं।
उसकी सुंदर बछियाँ अपने बच्चों से हमारी चारागाहों को भर रही हैं।
उसका गोबर भी हमारे बाग़  की रस-भरी सब्जियों और फलोद्यान के
स्वादिष्ट फलों में हमारे भोजन की बरकत बना हुआ है।
हमारी घाटियाँ नेक सिम-सिम के
खुलकर रँभाने की ध्वनी और प्रतिध्वनि से
अभी तक गूँज रही हैं।
हमारे झरने उसके सौम्य तथा सुंदर मुख को
अभी तक प्रतिबिम्बित कर रहे हैं।
हमारी धरती की मिटटी
उसके खुरों की अमित छाप को
अभी तक सीने से लगाय हुए है
और सावधानी के साथ उसकी सँभाल कर रही है।
बहुत प्रसन्न होती है हमारी घास
सिम-सिम का भोजन बनकर
बहुत संतुष्ट होती है हमारी धूप
उसे सहला कर
बहुत आनंदित होता हमारा मन्द समीर
उसके कोमल और चमकीले रोम-रोम को छूकर।
बहुत आभार महसूस करता है मीरदाद उसे वृद्धावस्था के रेगिस्तान को पार करवाते हुए, उसे इन्ही सूर्यों तथा समीरों के देश में नयी चरागाहों का मार्ग दिखाते हुए। 

बहुत दिया है सिम-सिम ने,और बहुत लिया है;
लेकिन सिम-सिम को अभी
और भी देना और लेना है।
मिकास्तर: क्या सिम-सिम आपके शब्दों को समझ सकती है जो आप उससे ऐसे बातें कर रहे हैं मानो वह मनुष्य की-सी बुद्धि रखती हो?
मीरदाद: महत्व शब्द का नहीं होता, भले मिकास्तर। महत्व उस भावना का होता है जो शब्द के अंदर गूंजती है; और पशु भी उससे प्रभावित होते हैं।और फिर, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि बेचारी सिम-सिम की आँखों में से एक स्त्री मेरी ओर देख रही है।
मिकास्तर: बूढी और दुर्बल सिम-सिम के साथ इस प्रकार बातें करने का क्या लाभ ? क्या आप आशा करते है कि इस प्रकार आप बुढापे के प्रकोप को रोककर सिम-सिम की आयु लम्बी कर देंगे ?
मीरदाद: एक दर्दनाक बोझ है बुढापा मनुष्य के लिये, और पशु के लिये भी। मनुष्य ने अपनी उपेक्षापूर्ण निर्दयता से इसे और भी दर्दनाक बना दिया है। एक नवजात शिशु पे वे अपना अधिक से अधिक ध्यान और प्यार लुटाते हैं।
परन्तु बुढापे के बोझ से दबे मनुष्य के लिये वे अपने ध्यान से अधिक अपनी उदासीनता, और अपनी सहानुभूति से अधिक अपनी उपेक्षा बचाकर रखते हैं। जितने अधीर वे किसी दूधमुंहे बच्चे को जवान होता देखने के लिये होते हैं, उतने ही अधीर होते हैं वे किसी वृद्ध मनुष्य को कब्र का ग्रास बनता देखने के लिये।
बच्चे और बूढ़े दोनों ही सामान रूप से असहाय होते हैं किन्तु बच्चों की बेबसी बरबस सबकी प्रेम और त्याग से पूर्ण सहायता प्राप्त कर लेती है;
जब कि बूढों की बेबसी किसी किसी की ही अनिच्छा पूर्वक दी गई सहायता को पाने में सफल होती है। वास्तव में बच्चों की तुलना में बूढ़े सहानुभूति के अधिक अधिकारी होते हैं। जब शब्दों को उस कान में प्रवेश पाने के लिये जो कभी हलकी से हलकी फुसफुसाहट के प्रति भी संवेदनशील और सजग था, देर तक और जोर से खटखटाना पड़ता है ;
जब आँखें, जो कभी निर्मल थीं, विचित्र धब्बों और छायाओं के लिये नृत्य मंच बन जाती हैं ;जब पैर, जिनमें कभी पंख लगे हुये थे, शीशे के ढेले बन जाते हैं ;और हाथ जो जीवन को साँचे में ढालते थे, टूटे साँचों में बदल जाते हैं ; जब घुटनों के जोड़ ढीले पड़ जाते हैं, और सिर गर्दन पर रखी एक कठपुतली बन जाता है ; जब चक्की के पाट घिस जाते हैं, और स्वयं चक्की-घर सुनसान गुफा हो जाता है ;जब उठने का अर्थ होता है गिर जाने के भय से पसीने-पसीने होना, और बैठने का अर्थ होता है इस दुःखदायी संदेह के साथ बैठना कि शायद फिर कभी उठा ही न जा सके ; जब खाने-पीने का अर्थ होता है खाने-पीने के परिणाम से डरना, और न खाने-पीने का अर्थ होता है घ्रणित मृत्यु का दबे-पाँव चले आना ; हाँ जब बुढ़ापा मनुष्य को दबोच लेता है, तब समय होता है, मेरे साथियो, उसे कान और नेत्र प्रदान करने का, उसे हाथ और पैर देने का, उसकी क्षीण हो रही शक्ति को अपने प्यार के द्वारा पुष्ट करने का, ताकि उसे महसूस हो कि अपने खिलते बचपन और यौवन में वह जीवन को जितना प्यारा था, इस ढलती आयु में उससे रत्ती भर भी कम प्यारा नहीं है।
अस्सी वर्ष ... अनन्तकाल में चाहे एक पल से कम हों; किन्तु वह मनुष्य जिसने अस्सी वर्षों तक अपने आप को बोया हो, एक पल से कहीं अधिक होता है। वह अनाज होता है उन सब के लिये जो उसके जीवन की फसल काटते हैं। और वह कौन-सा जीवन है जिसकी फसल सब नहीं काटते हैं ? क्या तुम इस क्षण भी उस प्रत्येक स्त्री और पुरुष के जीवन की फसल नहीं काट रहे हो जो कभी इस धरती पर चले थे ? तुम्हारी बोली उनकी बोली की फसल के सिवाय और क्या है ?
तुम्हारे विचार उनके विचारों के बीने गये दानों के सिवाय और क्या हैं ? तुम्हारे वस्त्र और मकान तक, तुम्हारा भोजन, तुम्हारे उपकरण,तुम्हारे क़ानून, तुम्हारी परम्पराएँ और तुम्हारी परिपाटियाँ—ये क्या उन्हीं लोगों के वस्त्र, मकान, भोजन, उपकरण, क़ानून, परम्पराएँ और परिपाटियाँ नहीं हैं जो तुमसे पहले यहाँ आ चुके हैं और यहाँ से जा चुके हैं।एक समय में तुम एक ही चीज की फसल नहीं काटते हो, बल्कि सब चीजों की फसल काटते हो, और हर समय काटते हो।
तुम ही बोने वाले हो, तुम ही फसल हो, तुम ही लुटेरे हो, तुम ही खेत हो और खलिहान भी। यदि तुम्हारी फसल खराब है तो उस बीज की ओर देखो जो तुमने दूसरों के अंदर बोया है, और उस बीज की ओर भी जो तुमने उन्हें अपने अंदर बोने दिया है। लुनेरे और उसकी दराँती की ओर भी देखो, और खेत और खलिहान की ओर भी।
एक वृद्ध मनुष्य जिसके जीवन की फसल तुमने काटकर अपने कोठारों में भर ली है, निश्चय ही तुम्हारी अधिकतम देख-रेख का अधिकारी है। यदि तुम उसके उन वर्षों में जो अभी काटने के लिए बची वस्तुओं से भरपूर है, अपनी उदासीनता से कड़वाहट घोल दोगे, तो जो कुछ तुमने उससे बटोर कर संभल लिया है,
और जो कुछ तुम्हें अभी बटोरना है, वह सब निश्चय ही तुम्हारे मुंह को कड़वाहट से भर देगा। अपनी शक्ति खो रहे पशु की उपेक्षा करके भी तुम्हे ऐसी ही कड़वाहट का अनुभव होगा। यह उचित नहीं कि फसल से लाभ उठा लिया जाये, और फिर बीज बोने वाले और खेत को कोसा जाये। हर जाति तथा हर देश के लोगों के प्रति दयावान बनो, मेरे साथियो। वे प्रभु की ओर तुम्हारी यात्रा में तुम्हारा पाथेय हैं। 
परन्तु मनुष्य के बुढ़ापे में उसके प्रति विशेष रूप से दयावान बनो; कहीं ऐसा न हो कि निर्दयता के कारण तुम्हारा पाथेय खराब हो जाये और तुम अपनी मंजिल पर कभी पहुँच ही न सको। हर प्रकार के और हर उम्र के पशुओं के प्रति दयावान बनो; यात्रा की लम्बी और कठिन तैयारियों में वे तुम्हारे गूँगे किन्तु बहुत वफादार सहायक हैं।
परन्तु पशुओं के बुढ़ापे में उनके प्रति विशेष रूप से दयावान रहो; ऐसा न हो तुम्हारे ह्रदय की कठोरता के कारण उनकी वफादारी बेवफाई में बदल जाये और उनसे मिलने वाली सहायता बाधा बन जाये।
सिम-सिम के दूध पर पलना
और जब उसके पास देने को
और न रहे तो उसकी गर्दन
पर कसाई की छुरी रख
देना चरम कृतध्नता है।
अध्याय - २४ 
दूसरे की पीड़ा पर जीना , पीड़ा का शिकार होना है
जब शमदाम और कसाई चले गए तो मिकेयन ने मुर्शिद से पूछा: मिकेयन: खाने के लिये मारना क्या उचित नहीं है मुर्शिद ?
मीरदाद: मृत्यु से पेट भरना मृत्यु का आहार बनना है। दूसरों की पीड़ा पर जीना पीड़ा का शिकार होना है। यही आदेश है प्रभु-इच्छा का यह समझ लो और फिर अपना मार्ग चुनो, मिकेयन।
मिकेयन: यदि मैं चुन सकता तो अमर पक्षी की तरह वस्तुओं की सुगंध पर जीना पसंद करता, उसके मांस पर नहीं।
मीरदाद: तुम्हारी पसंद सचमुच उत्तम है। विश्वास करो, मिकेयन, वह दिन आ रहा है जब मनुष्य वस्तुओं की सुगंध पर जियेंगे जो उनकी आत्मा है, उनके अक्त मांस पर नहीं।
और तड़पने वाले के लिये वह दिन दूर नहीं। क्योंकि तड़पने वाले जानते हैं कि देह का जीवन और कुछ नहीं, देह-रहित जीवन तक पहुँचने वाला पुल-मात्र है। और तड़पने वाले जानते हैं कि स्थूल और अक्षम इन्द्रियाँ अत्यंत सूक्ष्म तथा पूर्ण ज्ञान के संसार के अंदर झाँकने के लिये झरोखे-मात्र हैं।
और तड़पने वाले जानते हैं कि जिस भी मांस को वे काटते है, उसे देर-सवेर, अनिवार्य रूप से, उन्हें अपने ही मांस से जोड़ना पडेगा;
और जिस भी हड्डी को वे कुचलते हैं, उसे उन्हें अपनी ही हड्डी से फिर बनाना पडेगा; और रक्त की जो बूंद वे गिराते हैं, उसकी पूर्ति उन्हें अपने ही रक्त से करनी पड़ेगी। क्योंकि शरीर का यही नियम है। पर तड़पने वाले इस नियम की दासता से मुक्त होना चाहते हैं।
इसलिये वे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम से कम कर लेते हैं और इस प्रकार कम कर लेते हैं शरीर के प्रति अपने ऋण को जो वास्तव में पीड़ा और मृत्यु के प्रति ऋण है।तड़पने वाले पर रोक केवल उसकी अपनी इच्छा और तड़प की होती है,
जबकि न तड़पने वाला दूसरों द्वारा रोके जाने की प्रतीक्षा करता है अनेक वस्तुओं को, जिन्हें न तड़पने वाला उचित समझता है तड़पने वाला अपने लिये अनुचित मानता है। न तड़पने वाला अपने पेट या जेब में डालकर रखने के लिये अधिक से अधिक चीजें हथियाने का प्रयत्न करता है, जबकि तदपने वाला जब अपने मार्ग पर चलता है तो न उसकी जेब होती है और न ही उसके पेट में किसी जीव के रक्त और पीड़ा-भरी एंठ्नों की गंदगी।
न तड़पने वाला जो ख़ुशी किसी पदार्थ को बड़ी मात्रा में पाने से करता है–या समझता है कि वह प्राप्त करता है—तड़पने वाला उसे आत्मा के हलकेपन और दिव्य ज्ञान की मधुरता में प्राप्त करता है। एक हरे-भरे खेत को देख रहे दो व्यक्तियों में से एक उसकी उपज का अनुमान मन और सेर में लगाता है और उसका मूल्य सोने-चांदी में आँकता है।
दूसरा अपने नेत्रों से खेत की हरियाली का आनंद लेता है, अपने विचारों से हर पत्ती को चूमता है, और अपनी आत्मा में हर छोटी से छोटी जड़,हर कंकड़ और मिटटी के हर ढेले के प्रति भ्रातृभाव स्थापित कर लेता है। मैं तुमसे कहता हूँ, दुसरा व्यक्ति उस खेत का असली मालिक है, भले ही क़ानून की दृष्टी से पहला व्यक्ति उसका मालिक हो।एक मकान में बैठे दो व्यक्तियों में से एक उसका मालिक है,
दूसरा केवल एक अतिथि। मालिक निर्माण तथा देख-रेख के खर्च की, और पर्दों,गलीचों तथा अन्य साज-सामग्री के मूल्य की विस्तार के साथ चर्चा करता है। जबकि अतिथि मन ही मन नमन करता है उन हाथों को जिन्होंने खोदकर खदान में से पत्थरों को निकाला, उनको तराशा और उनसे निर्माण किया; उन हाथों को जिन्होंने गलीचों तथा पर्दों को बुना;
और उन हाथों को जिन्होंने जंगलों में जाकर उन्हें खिडकियों और दरवाजों का,कुर्सियों और मेजों का रूप दे दिया। इन वस्तुओं को अस्तित्व में लानेवाले निर्माण-कर्ता हाथ की प्रशंसा करने में उसकी आत्मा का उत्थान होता है। मैं तुमसे कहता हूँ, वह अतिथि उस घर का स्थायी निवासी है;
जब कि वह जिसके नाम वह मकान है केवल एक भारवाहक पशु है जो मकान को पीठ पर ढोता है, उसमे रहता नहीं। दो व्यक्तियों में से,जो किसी बछड़े के साथ उसकी माँ के दूध के सहभागी हैं, एक बछड़े को इस भावना के साथ देखता है कि बछड़े का कोमल शरीर उसके आगामी जन्म-दिवस पर उसके तथा उसके मित्रों की दावत के लिये उन्हें बढ़िया मांस प्रदान करेगा।
दूसरा बछड़े को अपना धाय-जाया भाई समझता है और उसके ह्रदय में उस नन्हे पशु तथा उसकी माँ के प्रति स्नेह उमड़ता है। मैं तुमसे कहता हूँ, उस बछड़े के मांस से दूसरे व्यक्ति का सचमुच पोषण होता है; जबकि पहले के लिये वह विष बन जाता है। हाँ बहुत सी ऐसी चीजें पेट में दाल ली जाती हैं जिन्हें ह्रदय में रखना चाहिये।
बहुत सी ऐसी चीजें जेब और कोठारों में बन्द कर दी जाती हैं जिनका आनंद आँख और नाक के द्वारा लेना चाहिये। बहुत सी ऐसी चीजें दांतों द्वारा चबाई जाती हैं जिनका स्वाद बुद्धि द्वारा लेना चाहिये।जीवित रहने के लिये शरीर की आवश्यकता बहुत कम है। तुन उसे जितना कम दोगे, बदले में वह तुम्हे उता ही अधिक देगा; जितना अधिक दोगे, बदले में उतना ही कम देगा।
वास्तव में तुम्हारे कोठार और पेट से बाहर रहकर चीजें तुम्हारा उससे अधिक पोषण करती हैं जितना कोठार और पेट के अन्दर जाकर करती हैं। परन्तु अभी तुम वस्तुओं की केवल सुगंध पर जीवित नहीं रह सकते, इसलिये धरती के उदार ह्रदय से अपनी जरुरत के अनुसार निःसंकोच लो,
लेकिन जरुरत से ज्यादा नहीं। धरती इतनी उदार और स्नेहपूर्ण है कि उसका दिल अपने बच्चों के लिये सदा खुला रहता है।
धरती इससे भिन्न हो भी कैसे सकती है ?
और अपने पोषण के लिये अपने आपसे बाहर जा भी कहाँ सकती है ? धरती का पोषण धरती को ही करना है, और धरती कोई कंजूस गृहणी नहीं, उसका भोजन तो सदा परोसा रहता है और सबके लिये पर्याप्त होता है। जिस प्रकार धरती तुम्हे भोजन पर आमंत्रित करती है और कोई भी चीज तुम्हारी पहुँच से बाहर नहीं रखती,
ठीक उसी प्रकार तुम भी धरती को भोजन पर आमंत्रित करो और अत्यंत प्यार के साथ तथा सच्चे दिल से उससे कहो;”मेरी अनुपम माँ !
जिस प्रकार तूने अपना ह्रदय मेरे सामने फैला रखा है ताकि जो कुछ मुझे चाहिये ले लूँ, उसी प्रकार मेरा ह्रदय तेरे सम्मुख प्रस्तुत है ताकि जो कुछ तुझे चाहिये ले ले।”
यदि धरती के ह्रदय से आहार प्राप्त करते हुए तुम्हे ऐसी भावना प्रेरित करती है, तो इस बात का कोई महत्व नहीं कि तुम क्या खाते हो।परन्तु यदि वास्तव में यह भावना तुम्हे प्रेरित करती है तो तुम्हारे अन्दर इतना विवेक और प्रेम होना चाहिये कि तुम धरती से उसके किसी बच्चे को न छीनो, विशेष रूप से उन बच्चों में से किसी को जो
जीने के आनंद और मरने की पीड़ा अनुभव करते हैं–जो द्वेत के खण्ड में पहुँच चुके हैं; क्योंकि उन्हें भी धीरे-धीरे और परिश्रम के साथ, एकता की ओर जानेवाले मार्ग पर चलना है। और उनका मार्ग तुम्हारे मार्ग से अधिक लंबा है। यदि तुम उनकी गति में बाधक बनते हो तो वे भी तुम्हारी गति में बाधक होंगे।
अबिमार; जब मृत्यु सभी जीवों की नियति है, चाहे वह एक कारण से हो या किसी दूसरे कारण से, तो किसी पशु की मृत्यु का कारण बनने में मुझे कोई नैतिक संकोच क्यों हो ?
मिरदाद: यह सच है कि सब जीवों का मरना निश्चित है, फिर भी धिक्कार है उसे जो किसी भी जीव की मृत्यु का कारण बनता है। जिस प्रकार यह जानते हुए कि मैं नरौन्दा से बहुत प्रेम करता हूँ और मेरे मन में कोई रक्त-पिपासा नहीं है, तुम मुझे उसे मारने का काम नहीं सौंपोगे, उसी प्रकार प्रभु-इच्छा किसी मनुष्य को किसी दूसरे मनुष्य या पशु को मारने का काम नहीं सौंपती, जब तक कि वह उस मौत के लिये साधन रूप में उसका उपयोग करना आवश्यक न समझती हो।
जब तक मनुष्य वैसे ही रहेंगे जैसे वे हैं, तब तक रहेंगे उनके बीच चोरियाँ और डाके, झूठ, युद्ध और हत्याएँ, तथा इस प्रकार के दूषित और पाप पूर्ण मनोवेग।लेकिन धिक्कार है चोर को और डाकू को, धिक्कार है झूठे को और युद्ध-प्रेमी को, तथा हत्यारे को और हर ऐसे मनुष्य को जो अपने ह्रदय में दूषित तथा पाप पूर्ण मनोवेगों को आश्रय देता है,
क्योकि अनिष्ट पूर्ण होने के कारण इन लोगों का उपयोग प्रभु-इच्छा अनिष्ट के संदेह-वाहकों के रूप में करती है।परन्तु तुम, मेरे साथियों,
अपने ह्रदय को हर दूषित
और पाप पूर्ण आवेग से
अवश्य मुक्त करो
ताकि प्रभु-इच्छा तुम्हे दुखी
संसार में सुखद सन्देश
पहुँचाने का अधिकारी
समझे–दुःख से मुक्ति का
सन्देश, आत्म-विजय का सन्देश,
प्रेम और ज्ञान द्वारा मिलने वाली
स्वतंत्रता का सन्देश।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हे।

धन्यवाद 

3 comments:

  1. Wise Soul is alone and universal , out of wordily boundaries , wise is sensitive , compassionate , awakened and have one vision for life on earth and beyond . So that Persian Sufi of 17 century was "Meerdad" . Spiritual Path walker can trust ; wisdom have own "Religion of Humanity" Owning own Organisation which is made from love only . cause this gift only granted to human from lord .
    Trust ; rest of all are fake , wordily and full of authoritative desire to rule through the name of religion and fear of serve for hell and heaven .

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