मिकेयन: यदि मैं चुन सकता तो अमर पक्षी की तरह वस्तुओं की सुगंध पर जीना पसंद करता, उसके मांस पर नहीं।
मीरदाद: तुम्हारी पसंद सचमुच उत्तम है। विश्वास करो, मिकेयन, वह दिन आ रहा है जब मनुष्य वस्तुओं की सुगंध पर जियेंगे जो उनकी आत्मा है, उनके अक्त मांस पर नहीं।
और तड़पने वाले के लिये वह दिन दूर नहीं। क्योंकि तड़पने वाले जानते हैं कि देह का जीवन और कुछ नहीं, देह-रहित जीवन तक पहुँचने वाला पुल-मात्र है। और तड़पने वाले जानते हैं कि स्थूल और अक्षम इन्द्रियाँ अत्यंत सूक्ष्म तथा पूर्ण ज्ञान के संसार के अंदर झाँकने के लिये झरोखे-मात्र हैं।
और तड़पने वाले जानते हैं कि जिस भी मांस को वे काटते है, उसे देर-सवेर, अनिवार्य रूप से, उन्हें अपने ही मांस से जोड़ना पडेगा;
और जिस भी हड्डी को वे कुचलते हैं, उसे उन्हें अपनी ही हड्डी से फिर बनाना पडेगा; और रक्त की जो बूंद वे गिराते हैं, उसकी पूर्ति उन्हें अपने ही रक्त से करनी पड़ेगी। क्योंकि शरीर का यही नियम है। पर तड़पने वाले इस नियम की दासता से मुक्त होना चाहते हैं।
इसलिये वे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम से कम कर लेते हैं और इस प्रकार कम कर लेते हैं शरीर के प्रति अपने ऋण को जो वास्तव में पीड़ा और मृत्यु के प्रति ऋण है।तड़पने वाले पर रोक केवल उसकी अपनी इच्छा और तड़प की होती है,
जबकि न तड़पने वाला दूसरों द्वारा रोके जाने की प्रतीक्षा करता है अनेक वस्तुओं को, जिन्हें न तड़पने वाला उचित समझता है तड़पने वाला अपने लिये अनुचित मानता है। न तड़पने वाला अपने पेट या जेब में डालकर रखने के लिये अधिक से अधिक चीजें हथियाने का प्रयत्न करता है, जबकि तदपने वाला जब अपने मार्ग पर चलता है तो न उसकी जेब होती है और न ही उसके पेट में किसी जीव के रक्त और पीड़ा-भरी एंठ्नों की गंदगी।
न तड़पने वाला जो ख़ुशी किसी पदार्थ को बड़ी मात्रा में पाने से करता है–या समझता है कि वह प्राप्त करता है—तड़पने वाला उसे आत्मा के हलकेपन और दिव्य ज्ञान की मधुरता में प्राप्त करता है। एक हरे-भरे खेत को देख रहे दो व्यक्तियों में से एक उसकी उपज का अनुमान मन और सेर में लगाता है और उसका मूल्य सोने-चांदी में आँकता है।
दूसरा अपने नेत्रों से खेत की हरियाली का आनंद लेता है, अपने विचारों से हर पत्ती को चूमता है, और अपनी आत्मा में हर छोटी से छोटी जड़,हर कंकड़ और मिटटी के हर ढेले के प्रति भ्रातृभाव स्थापित कर लेता है। मैं तुमसे कहता हूँ, दुसरा व्यक्ति उस खेत का असली मालिक है, भले ही क़ानून की दृष्टी से पहला व्यक्ति उसका मालिक हो।एक मकान में बैठे दो व्यक्तियों में से एक उसका मालिक है,
दूसरा केवल एक अतिथि। मालिक निर्माण तथा देख-रेख के खर्च की, और पर्दों,गलीचों तथा अन्य साज-सामग्री के मूल्य की विस्तार के साथ चर्चा करता है। जबकि अतिथि मन ही मन नमन करता है उन हाथों को जिन्होंने खोदकर खदान में से पत्थरों को निकाला, उनको तराशा और उनसे निर्माण किया; उन हाथों को जिन्होंने गलीचों तथा पर्दों को बुना;
और उन हाथों को जिन्होंने जंगलों में जाकर उन्हें खिडकियों और दरवाजों का,कुर्सियों और मेजों का रूप दे दिया। इन वस्तुओं को अस्तित्व में लानेवाले निर्माण-कर्ता हाथ की प्रशंसा करने में उसकी आत्मा का उत्थान होता है। मैं तुमसे कहता हूँ, वह अतिथि उस घर का स्थायी निवासी है;
जब कि वह जिसके नाम वह मकान है केवल एक भारवाहक पशु है जो मकान को पीठ पर ढोता है, उसमे रहता नहीं। दो व्यक्तियों में से,जो किसी बछड़े के साथ उसकी माँ के दूध के सहभागी हैं, एक बछड़े को इस भावना के साथ देखता है कि बछड़े का कोमल शरीर उसके आगामी जन्म-दिवस पर उसके तथा उसके मित्रों की दावत के लिये उन्हें बढ़िया मांस प्रदान करेगा।
दूसरा बछड़े को अपना धाय-जाया भाई समझता है और उसके ह्रदय में उस नन्हे पशु तथा उसकी माँ के प्रति स्नेह उमड़ता है। मैं तुमसे कहता हूँ, उस बछड़े के मांस से दूसरे व्यक्ति का सचमुच पोषण होता है; जबकि पहले के लिये वह विष बन जाता है। हाँ बहुत सी ऐसी चीजें पेट में दाल ली जाती हैं जिन्हें ह्रदय में रखना चाहिये।
बहुत सी ऐसी चीजें जेब और कोठारों में बन्द कर दी जाती हैं जिनका आनंद आँख और नाक के द्वारा लेना चाहिये। बहुत सी ऐसी चीजें दांतों द्वारा चबाई जाती हैं जिनका स्वाद बुद्धि द्वारा लेना चाहिये।जीवित रहने के लिये शरीर की आवश्यकता बहुत कम है। तुन उसे जितना कम दोगे, बदले में वह तुम्हे उता ही अधिक देगा; जितना अधिक दोगे, बदले में उतना ही कम देगा।
वास्तव में तुम्हारे कोठार और पेट से बाहर रहकर चीजें तुम्हारा उससे अधिक पोषण करती हैं जितना कोठार और पेट के अन्दर जाकर करती हैं। परन्तु अभी तुम वस्तुओं की केवल सुगंध पर जीवित नहीं रह सकते, इसलिये धरती के उदार ह्रदय से अपनी जरुरत के अनुसार निःसंकोच लो,
लेकिन जरुरत से ज्यादा नहीं। धरती इतनी उदार और स्नेहपूर्ण है कि उसका दिल अपने बच्चों के लिये सदा खुला रहता है।
धरती इससे भिन्न हो भी कैसे सकती है ?
और अपने पोषण के लिये अपने आपसे बाहर जा भी कहाँ सकती है ? धरती का पोषण धरती को ही करना है, और धरती कोई कंजूस गृहणी नहीं, उसका भोजन तो सदा परोसा रहता है और सबके लिये पर्याप्त होता है। जिस प्रकार धरती तुम्हे भोजन पर आमंत्रित करती है और कोई भी चीज तुम्हारी पहुँच से बाहर नहीं रखती,
ठीक उसी प्रकार तुम भी धरती को भोजन पर आमंत्रित करो और अत्यंत प्यार के साथ तथा सच्चे दिल से उससे कहो;”मेरी अनुपम माँ !
जिस प्रकार तूने अपना ह्रदय मेरे सामने फैला रखा है ताकि जो कुछ मुझे चाहिये ले लूँ, उसी प्रकार मेरा ह्रदय तेरे सम्मुख प्रस्तुत है ताकि जो कुछ तुझे चाहिये ले ले।”
यदि धरती के ह्रदय से आहार प्राप्त करते हुए तुम्हे ऐसी भावना प्रेरित करती है, तो इस बात का कोई महत्व नहीं कि तुम क्या खाते हो।परन्तु यदि वास्तव में यह भावना तुम्हे प्रेरित करती है तो तुम्हारे अन्दर इतना विवेक और प्रेम होना चाहिये कि तुम धरती से उसके किसी बच्चे को न छीनो, विशेष रूप से उन बच्चों में से किसी को जो
जीने के आनंद और मरने की पीड़ा अनुभव करते हैं–जो द्वेत के खण्ड में पहुँच चुके हैं; क्योंकि उन्हें भी धीरे-धीरे और परिश्रम के साथ, एकता की ओर जानेवाले मार्ग पर चलना है। और उनका मार्ग तुम्हारे मार्ग से अधिक लंबा है। यदि तुम उनकी गति में बाधक बनते हो तो वे भी तुम्हारी गति में बाधक होंगे।
अबिमार; जब मृत्यु सभी जीवों की नियति है, चाहे वह एक कारण से हो या किसी दूसरे कारण से, तो किसी पशु की मृत्यु का कारण बनने में मुझे कोई नैतिक संकोच क्यों हो ?
मिरदाद: यह सच है कि सब जीवों का मरना निश्चित है, फिर भी धिक्कार है उसे जो किसी भी जीव की मृत्यु का कारण बनता है। जिस प्रकार यह जानते हुए कि मैं नरौन्दा से बहुत प्रेम करता हूँ और मेरे मन में कोई रक्त-पिपासा नहीं है, तुम मुझे उसे मारने का काम नहीं सौंपोगे, उसी प्रकार प्रभु-इच्छा किसी मनुष्य को किसी दूसरे मनुष्य या पशु को मारने का काम नहीं सौंपती, जब तक कि वह उस मौत के लिये साधन रूप में उसका उपयोग करना आवश्यक न समझती हो।
जब तक मनुष्य वैसे ही रहेंगे जैसे वे हैं, तब तक रहेंगे उनके बीच चोरियाँ और डाके, झूठ, युद्ध और हत्याएँ, तथा इस प्रकार के दूषित और पाप पूर्ण मनोवेग।लेकिन धिक्कार है चोर को और डाकू को, धिक्कार है झूठे को और युद्ध-प्रेमी को, तथा हत्यारे को और हर ऐसे मनुष्य को जो अपने ह्रदय में दूषित तथा पाप पूर्ण मनोवेगों को आश्रय देता है,
क्योकि अनिष्ट पूर्ण होने के कारण इन लोगों का उपयोग प्रभु-इच्छा अनिष्ट के संदेह-वाहकों के रूप में करती है।परन्तु तुम, मेरे साथियों,
अपने ह्रदय को हर दूषित
और पाप पूर्ण आवेग से
अवश्य मुक्त करो
ताकि प्रभु-इच्छा तुम्हे दुखी
संसार में सुखद सन्देश
पहुँचाने का अधिकारी
समझे–दुःख से मुक्ति का
सन्देश, आत्म-विजय का सन्देश,
प्रेम और ज्ञान द्वारा मिलने वाली
स्वतंत्रता का सन्देश।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हे।
धन्यवाद