( वायुमंडल में फैले जलकण जलस्मृति पे आधारित )
भू: जल नभ आग वायु
पृथ्व मंडल में हम पांच
मिलजुल कर हम रहते
इसी वायुमंडल में बसते
भोलेभाले कितने सरल
अग्निअंश सूक्ष्मतम प्राण
जलकण स्मृति को लिए
क्या अब्भी समझना शेष
अभी मेरा निर्वाण कहाँ !!
गहरा नीला अक्ष मंडल
में ह्ल्के भारी नम कण
बाँहों में भरे वायु-जगत
'वायु' जो वाष्प से भीगी
श्वेत जलज से जा मिला
श्वेत श्याम हो बरस गयी
गड गड झर झर करती
वर्षा बरसी नवांकुर फूटे
चहुँ हरियाली फ़ैल गयी
अन्नफल से खेत भर गए
छोटा/लंबा जीवन चलता
जीवन ही जीवन हो जैसे
हमने जन्म लिया साथ में
कर्मेक्छुक पुरुषार्थियों ने
पृथ्वी पे साथ सहचर बन
अन्न खाया और जल पिया
खानपान में जीवन छिपा
जल के कण जीवन-कण
देह में प्रवेश पा जलकण
भावो को तरंगित करते
पूर्व सुरक्षित स्मृतियाँ देते
मेरे विचार शब्द में गढ़ते
मेरी देह की शिराओं में
बसे सतत ये रक्तकण
समस्त स्मृतियाँ रक्षित
मेरा व्यवहार सुरक्षित
कर्म विचार संरक्षित
औ मैं निर्गुण निर्गयानी
प्रकृति पूर्व सुनियोजत
मैं सदा ही अनियोजित
वो ज्ञान मैं नीरा अज्ञान
कर्म माया जाल में फंस
प्राण छूटे श्वांस गयी तो
अग्नियज्ञ में पांचो भस्म
पृथ्वीतत्व राख हो गया
जलकण वायु से लिपटा
ऊपर को उठता गया
सबने रूप बदले अपने
प्राण मेरे आश्चर्य भाव में
वायु-तत्व क्यों वजनी है!
अग्नि-तत्व है वायु केअंदर
दिव्यप्राणअग्नि मुक्त नहीं
वायु में लिपटी भाप अभी
जिसके कणकण में स्मृति
वायु भी अभी मुक्त कहाँ ?
अभी मेरा निर्वाण कहाँ !
नोट : ये सनातन धर्म से निकली शिव की तरफ उठती हुई कविता है , यदि वैज्ञानिक सिद्धांत के साथ धर्म और दर्शन का सूंदर मेल पाए तो अवश्य सराहे। धन्यवाद
आग हूँ पानी हूँ हवा हूँ
राख हूँ या के ख़ाक हूँ
आस्मान जंगल धुंआ हूँ
पहाड़ हूँ नदी सागर हूँ
झील बावड़ी पोखर हूँ
सड़कें हूँ या मैं मकां हूँ
फूल हूँ बाग़ की बेल या
पंक के ढेर में पंकज हूँ
पूर्णता में देश की मिट्टी
ब्रह्म श्रृंखला का भाग हूँ
अनिमेष नेत्र पलकें मुंदी
आधा अधूरा शिवज्ञान हूँ
कहाँ कहाँ , कैसे कैसे
अलग करूँ खुद से मैं
सब मैं हूँ , मुझमे सब हैं
No comments:
Post a Comment