Tuesday, 26 September 2017

"ॐ" विलय


तुम्हारे अंदर रह तुममे तुमको खोजता रहा
कैसे मिलूंगा तुमसे तुम्हारे अंदर विचरता हूँ
पैरों की धूल हूँ , अभी चलना शुरू किया है
ठानी है! माथे के दमकते हीरे तक आऊंगा
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अस्तित्व सम्पूर्ण तुम मैं तुम्हारा क्षुद्र धूलकण
तुमसे उठ खेल अंत तुम्मे विलय हो जाऊंगा
आता हूँ मस्तकमणि तक हस्तिसम पा लूंगा
तुझको समर्पित तुझको अपना बना ही लूंगा
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गजमुक्ता से रस जो टपके, मदांध कहाऊंगा 
अपनी सुगंध से मस्त पागल प्रेमी हो जाऊंगा
न सोचूं इस्की उस्की, फिर न महंत न सम्राट
फिर लौट के न आऊं एकबार जो पा पाउँगा

© लता 
२६-०९-२०१७
संध्या १५ (०3) : ५९ (59pm)

Saturday, 23 September 2017

मेरा हमअक्स कुछ ऐसा हो



मेरा हमअक्स कुछ ऐसा हो,दीप मेरा-
बहते प्रेम का दरिया हो !
हमअक्स -प्रतिबिम्ब 
भाषा बोलूं सरल उसके अर्थ गंभीर हो
भावों के सुलझे ख़म हों !
ख़म-घुमाव 
प्रज्ज्वलित दीपमाला मौन में जब उतरे
तो बहती हवायें गुम हो !
गुम-खोयी /शांत 
पिय संग बावरी हो तो रंगो की रुनझुन 
घन का मौसम सघन हो !


नाव उतारुं जब उफनती तेज धारा में
लगन दिल में हांथो दम हो!

© लता 
२२ -०९-२०१७ 
१७:५५ ( ०५:५५ ) संध्या 

Sunday, 17 September 2017

ममतामयी करुणामयी आनंदमयी माँ



ममता ह्रदय में  बसी है 
पर आँखें नीरव खोयी हैं 
दिल है अपने ही जाए के 
जिस्म ओ रूह पे उभरे 
गहरे जख्म देख के बस
आगोश में भर के,  जब 
इत्ता बोली - 'राजा बेटा
सब अच्छा हो जाएगा..,
और कहे तेरी माँ है न!
थपकी दे सहलाती हुई 
स्नेहपूरित कहती जाये-
'प्यारा सुन्दर लाल मेरा
पूरे जग से न्यारा है तू.!'

उस पल का राजा वो 
हो नन्हा,जी उठता है
फिर संघर्ष को खड़ा
हो जाता मां का लाल
ज्यादा कब कहती है 
ज्यूँ वो सब जानती है
जीवन संघर्षकथा को
खूब वो पहचानती है
मेरी माँ! अब मौन है 
पर ममता छलकाती
उसकी प्रेमभरी बातें 
आह! नर्म स्नेह स्पर्श 
मीलों दूर राह तै कर 
पीव संग प्यास साथ   
तड़प इत्ती, के बोले-
'इस दिल का टुकड़ा
पूरे जग से न्यारा है तू!'

१८/०९ /२०१७ 
८:१० - प्रातः
प्रणाम 

Saturday, 9 September 2017

पूर्ण सच के पूर्ण दो सच टुकड़े

सच और झूठ की इस लड़ाई में 
हास्यास्पद ये तथ्य उजागर हुआ 
झूठ और झूठ, कभी नहीं लड़ते 
झूठ को 'सच' से लड़ना ही नहीं 
बेचारा डराभुता बिल में रहता है 
छुपके चुप रह के काम करता है 

ये तो 'दो सच' ही है, खूबसूरत से- 
जिनके बीच झुठ की जंग जारी है 
भू में कंपन, पर्वत आग उगलते है 
बीच चूहे सा झूठ यदि आता भी है 
सच के शेर फूंक मार उड़ा देते है 
फिर आपस में द्वंद्व करने लगते है 

जब लड़ते
 दोनो दो सच के पक्ष ही 

इनमें हारा, झूठ का हक़दार होता
जीता हुआ सच का हार पहनता है
अक्सर इन दो 'सच' की ज्वाला में 
इतनी भीषण लपटें सुलग उठती है 
विध्वंस तबाही से इंसानियत रोती है

Thursday, 7 September 2017

समय और योगी की दृष्टि

इकदिन समय से मिल
निरंकुश उसे कहा मैंने
तुम तो सब जानते हो..
योजनाएं और सीमायें
तुम ही तो तै करते हो
तुम ही आभास बनके
प्रेरणा, बाद शक्ति हो
फिर क्यों है सब ऐसा
मोह जाल घना गहरा
बिरले तपस्वी को ही
चक्र से मुक्ति देते हो
समय ने कहा- यूँ सब
कह न सकूंगा तुमको
मात्र इक पल दूंगा, मैं
अपना लिबास तुमको
भावशक्ति कर्मशक्ति
तुम्हे सहज दिखाउँगा
ओढ़ देखा मैंने नजारा
सब मेरे हीआदेश की
प्रतीक्षा में, खड़े हुए है
ताराच्छदित व्योमसघ्न
मौसम औ तत्व देखते
पृथ्वीलट्टू चगनमगन
चाल मौसमी मिजाज
मेरे इशारे पे मोड़ लेते
मैंने देखे रोते बिलखते
इंसा जाते कोसते मुझे
समय ख़राब क्या करें!
कहना चाहा- 'मै नहीं'
पर वे शब्द प्रकट न थे
मैं था समय जो मूकथा
'मैं' प्रचुर शक्ति स्वामी
बेबस और असहाय था
बौद्धिक प्राणियों समक्ष
विस्तृतघनी वेदना जगी
दिया दृष्टिदान, एक को
शक्ति, दूजे को दे प्राण
असमय दृष्टि से लोलुप
शक्ति दान से अहंकार
प्राण नेअमृत्व भाव भरे
अपने कर्म फ़ल के घेरे
उन्होंने और गहरे किये
मैं समय थोड़ा थका तो
न हारा! वर्तमान सूत्र दे
भूत भविष्य दर्शन दिया
अकर्मी थे भग्याधीन भी
अब अंधविश्वासी भी हुए
कोसते जाते निरंतर मुझे
असमंजस में करूँ क्या!
जो इनका भ्रम तोड़ सकू
बुद्धि योजना जाल समक्ष
मैं शक्तिहीन, कैसे कहूं !
मुझे नहीं ! बुद्धि भाव को
एक संग ही कटना होगा
फिर देखा-एक अनुभवी
कसौटी पे कस जो बढ़ा
वो मेरी भाषा देख समझ
मुस्कराया बोला - दोस्त
करुणा औ विवशता संग
समझा मैं दुविधा तुम्हारी
अनुभव यहाँ ये कहता है
समय औ अनुभव से पूर्व
सीख संग शास्त्र व्यर्थ है!
वे अच्छे! जिन्हे ज्ञान नहीं
कमस्कम, शांति भाव से
आत्मा यात्रा तो करती है!
जानने और ज्ञान नीचे तो
असमय दब मर जाती है
ये बौद्धिक भाव जगत है
स्वयं को कम तुम्हे दोषी
ठहरा,जीवन शक्ति बढ़ा
तुम्हे बांधने प्रयत्नशील है
किस चक्र में उलझे प्रिय
समझ के वोही कहता हूँ
सब उस समय पे छोडो
कह मुस्करा वो बढ़ गया
मैं अवाक् खड़ा रह गया
मैं समय! मुझसे भी आगे
निकल गया, वो योगी था
अति निर्बल, अति शक्ति
स्वअत्तियों में ही संतुलित
काल लट्टूअपनी धुरी पे
सूंड से धूल फेंकता पीछे
असहाय हूँ...कहता हुआ
ऐरावतसमय यूँ चल पड़ा
और मैं ! किंकर्तव्यविमूढ़
समय को वस्त्र वापिस दे
बहुत कुछ समझा, जाना,
मान के, मूक उतर आया
देह में, अपनी साधना में,
अनुभव की इस यात्रा में
इक युग से उस पलदान
तथा दिव्य-दृष्टि-मान का
अनुग्रहित हूँ , कृतार्थ हूँ!
समय पे , समय के भोग
उपभोग लेता-देता हुआ
बाँध समय को, मैं बंधक
देह-ऋणी हूँ , राहगीर हूँ

Author Note - this very first look, of time and his boundings and limits, from The Time and The sight of The Yogi

Monday, 4 September 2017

छल्का नूर का क़तरा

the absolutely feeling comes over long back, from many poets and sensitive souls now express in my words, enjoy the feel of " gangs of wisdom " and her infinite flow
नूर का क़तरा 

वो इक नूर का क़तरा था 
छल्का था .. आसमान से 

किसी ने मोती बना दिया 
किसी ने खारा बना दिया 

मौसमी नजाकत देख के 
किसी ने बीज बो दिए तो 

किसी ने रूहानी कहानी
  समझा तो किसी ने पानी  


Ⓒ लता, १२: १० दोपहर, ०४ -०९-२०१७ 

Sunday, 3 September 2017

सम्भलो! हे पार्थ, समय की कमान से वो छूटा बाण


सम्भलो!हे पार्थ, धनुर्धर!हे धनञ्जय!
समय की कमान से, वो छूटा  बाण 
बंधन से मुक्ति!...स्वभाव से मुक्ति!
कल्पनाओ की तो कल्पना, न करो

जागृत या सुप्त दो अवस्था अनंत है 
सागर गंभीर! न उतारो नैया टूटी है 
ऊपर लहर में  वृत्ति, सहज दिखेंगी 
अन्तस् में सरल हो फिर से मिलेँगी

गहराई में! पुनः स्व-रूप बदल लेंगी 
लाखो तरंगे  उड़ती है, ग्रास लेने को 
इनके कंठ में उलझ अटक जाओगे 
स्वभाव है बंधन का, बंध ही पाओगे 

बंध में रूचि बाकी, रुक ही जाओगे 
ये नहीं वो सही , वो नहीं तो ये भला 
भागो जितना भाग सको पर देखना
कहीं न कहीं उलझा हुआ, पाओगे!

थक हार घुटने पे बैठ हाथ जोड़ के 
बोला- अब क्या करूँ तुम ही बोलो
क्या थक, हार मान, संग्राम छोड़ दूँ
अथवा ये कालवार मौन स्वीकार लूँ 

कृष्ण बोले सखा समय ऐरावत सम 
बलशाली न्यायप्रिय हस्ति-चाल मग्न 
मैं खुद उसके तीरों के आगे मौन हूँ
तुम्हारे पराक्रम समक्ष संसार झुका

किन्तु समयसंहार! न सोच धनञ्जय 
योगी उसके तीरों की चाल जान के 
बचाव के बाण अक्ष में छोड़ करके 
नतमस्तक हो आदर सहित भाव से 

समय के वार  सम्मुख शिरोधार्य हो 
उसके वार सभी अपनी देह पे लेंगे 
अटल तीरवार वीर को घाव भी देंगे  
पर मरहम भी उनकी नोंक पे होगा 

पर कान्हा ! मेरा तप मेरा शौर्य वीर्य 
और ये आत्मोन्नति की प्रयत्नशीलता
काल की मनमानी है दे जो बस सहुँ 
विरोधाभास भारी संशय मिटाये प्रभु 

सुनो पार्थ ! तुम सागर किनारे खड़े थे 
इक्छारूप नाव बनी अर्जित पौरुष से 
इस नईया पे सवार हुए ये पुरुषार्थ था 
ज्ञाननौका सतही लहरों पे खेई धैर्य था 

ऊपरी लहरे छोड़ नीचे डुबकी लगायी 
और नीचे उतर दूसरे ही तल को छुआ 
समयअनुकूल साथ था या प्रतिकूल था 
हे वीर! तुम्हारा ही तो संचित प्रारब्ध था 


समय से बाहर कहाँ कब ! मैं और तुम 
किन्तु प्रारब्ध के रचनाकार मैं और तुम 
इसी भाग्य चक्र नीचे पलते मैं और तुम 
पुनः पुनः वो ही कथा गढ़ते मैं और तुम 

प्रथम विस्फोट सृष्टि का समय का जन्म
किन्तुअब मैं भी समय के बंधन में ही हूँ 
समय के आह्वाहन पे आना ही पड़ता है 
फिर उसी समय से मुक्त हुआ, मैं ही हूँ