Saturday, 7 March 2015

ह्रदय चाँद,सूरज बुधिरूप

ॐ 

अग्नि  तत्व से नहायी उष्ण सुवर्ण धातु 
शीतल सौम्य चाँद समरूप चांदी किरण 
.
विश्व नहाया उष्मपीत श्वेतशीत ऊर्जा से 
प्रतीक बने तेज-पुरुषार्थ शांति-सौम्य का
.
ताल्लुक क्या भाव का रुपहली चांदनी से 
ओजस्वी सूर्य से बुद्धि का ताल्लुक क्या 
.
लुभाती चमकती श्वेत-शांत चन्द्र-किरण
प्रेरणा जीवन रूप , पीत उष्म सूर्य किरण 
.
सूर्य के ओज से अस्तिव में चांदनीचमक 
स्वयं वो टुकड़ा अन्यथा अस्तित्वविहीन 
.
अद्भुत भाव रूप जुड़ा  इस धरती तत्व से 
ओजसूर्यतारा,चांदताराचांदनी युक्त हुआ  
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मेरे सभी कर्म सूर्य प्रेरित है जीवनदायी है 
अंतरात्मा-झील चांदनी से नहायी चाँद है 
.
चाँद सूरज दोनों का स-गुण मुझमे वास है 
सूरज तेजस बुधिरूप,स्त्रीरूप ह्रदय चाँद है
.
यूँ ही तो नहीं कहते बुद्धियुक्त ज्ञानीजन 
समस्त तारासमूह-तत्व का मुझमे वास है



सूरज से ऊर्जान्वित भाव-रूप धड़कता चाँद ये दिल
इसदिल की रौशनी से जो चमकी वो चांदनी हो तुम

प्रियतम  और प्रियतमा दोनो अर्धांश एक ही नूर के 
एक सूर्य बना चमका दूजा श्वेतशांत चाँद कहलाया 
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सब हंसा मानस  ने पा लिया अपने  मानसरोवर में
विस्तार जगत का वही तो, प्रेममय विश्व कहलाया


Friday, 6 March 2015

राख कण


जंगल आग जल उठी 
लपटे उन्नत उठ रही 
किसी ने तपिश देखी
किसी ने सौंदर्य पाया 
किसी ने भय-भीत हो 
अग्निदेव दर्शन पाया 
किसी ने चित्रभाषा दी

कवि ने गीत गा डाला
किसीने वो धुआं देखा 
किसी ने भस्म बनती 
सुलगती हुई चटकती
लकड़ियों से उड़ते वो 
सुलगतेतैरते चमकते
राख - कण उड़ते देखे

और पाया नव जीवन 
देख मिटते तैरतेउड़ते 
चकमतेसुलगते शांत 
राख कणो को दोबारा 
धरती पे आ  समूह में 
इकठा होता राख - ढेर


उस  शांत  राख के ढेर 
से उड़  चले कुछ  कण 
हवा संग उड़ बह  गिरे 
पर्बत  शिला पे जा पड़े 
तरंगितनृत्य युक्त हो 
और मिले जा लहरों से 
कुछ बैठे जा बगीचे में 
सुगन्धितपुष्प हो उठे



Om

Wednesday, 4 March 2015

सात रंग : होली है !



जब आसमान रंगीन होता है
तो इन्द्रधनुष खिला कहते है 

जमीन जब रंगो से नहाती है  
बगीचों का कारोबार कहते है 

ये रंग गहरे दिलो पे पड़ते है 
लोग भावस्नान नाम देते है 

सात रंग में आत्मा डूबती है 
शृंगृत आत्मनववधु कहते है 

आपके सात रंग बन के जब 
जिस्मो को सतरँगीं करते है 

होली है ! लोग ऐसा कहते है 
होली है ! लोग ऐसा कहते है 

नन्हा अस्तित्व :और जब मैं चींटी था

नन्हा  सा अस्तित्व है मेरा 
हवा से उड़ता ,पानी पे  पड़े- 
हुए उस  सूखे पत्ते  पे बहता
बुलबुले  सा  बनता  फूटता...
नन्ही  चींटी सा  जन्म मेरा 
कभी  मक्खी  कभी  पतिंगे 
राह में रोक लेते थे  जबरन 
ठोकर से आहत,वजन नीचे 
झट दब के मर जाता था मै  
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

कद  बढ़ा , मेरा अनुभव बढ़ा 
गहरी श्वांस ! के  हूँ सुरक्षित
राहत सांस लेता किन्तु आह! 
आगे  बड़ी  ठोकरें  घनी खड़ी 
कुछ और बढ़ा  वख्त के साथ
पानीसंगृहीत हो तालाब बना 
अब पीछे के अनुभव  छोटे थे 
आगे तड़ाग झील नदीधारे थे 
बांध बना धीरे से चलते बढ़ते 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

वख्त के साथ कुछ कद बढ़ा 
अब तो समस्त वेदना स्थल  
छोटे थे जिन पे पुल बन चुके 
किन्तु ये क्या !आगे विशाल 
आगे विशालअगाध उफ़नता 
समंदर पर्वतखायी समेटे हुए  
पीछे विशाल हिमखंडशृंखला 
निरंतर वे बढ़तेबनते जाते थे 
औरबढता कद वख्त के साथ 
उसके  ऊपर आसमान गहरा 
असंख्यतारा -साम्राज्य फैला 
नीचे अँधेरा , ऊपर अँधेरा था 
चहु ओर अँधेरा ही अँधेरा था  
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

वख्त के  साथ  कुछ कद बढ़ा 
समंदर की विशालता ओझल 
पर्वत की गहरायी भी नगण्य 
वो खायी भी हुई  दृष्टि से दूर 
जगह क्या ये न ऊँचा न नीचे 
सब समान किन्तु पैमाने परे 
लट्टू से घूमरहे चमकते तारे 
असंख्य पृथ्वियां अवर्णनित 
आह !! असीमित अद्वितीय
उफ़ !! ये क्या है ! वो क्या है ! 
आभासित दृश्य अभी और है 
मंजिलें बाकी अभी और भी है 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं। 

अब नहीं वो पूर्व सा जर्रा मैं !
बूँदभर जलसंग्रह से डरजाता  
कहाँ पर्वत खायी , वो समंदर 
हवा के झोंके से उड़ बिखरता
हलके  वजन से आहत  होता 
झीले  तालाब  नदिया डराती 
समंदर उन्नत लहरें हिलाती 
आज वे क्षुद्र हो चले , किन्तु 
आसमां  पे उड़ने  का हौसला  
आज  भी  संतुलित सा पाता 
स्व को संभालता चलता हूँ मैं।

भावनाओं के सैलाब

भावनाओं को सैलाब यूँ तो नहीं कहा जाता
शोर जोर कुछ तो है जो तबाह कर जाती है

किनारों के टूटने से पहले लौहबंध डालदेना
मौसम बिगड़ने से पहले बाँध लेना, बेहतर!

बांधो न गर किनारो को स्वछंद इस नदी के
बूंदों के मौसम में किनारे भी बहा लेजाती है

समंदर मिलने से पहले ये लहरें ही डुबो न दें
संभल के चलाना नाव, के जल में हलचल है 

और उसने कहा



पूछा किसी ने अंतरंगता में उस से
कैसे जुडु मैं तुझसे !
उसने कहा-" शांत हो जा तू तो है ही
एक एक साँस देख.."

अचरज से कौतुहल लिए फिर पूछा
कैसे प्रेम करूँ मै !
उसने कहा-प्रेम में मेरी गहराई देख
और मेरी उंचाईं देख

कुलबुलाहट से फिर पूछा शांत साँसे-
प्रेम गहराई ऊंचाई !
उसने कहा - आँखे अपनी बंद कर ले
अंतरयात्रा मात्र एक

जिज्ञासा कहाँ शांत होती इस पल में
पूछा,'करके दिखा दो'
उसने कहा,'नेत्र मूंदते ही प्रलय होगी
ये योग कुछ अलग है'

लोक अँधेरा होगा मेरी अंतरयात्रा में
समस्त व्योम सोयेगा
मेरे अंतर्योग पूर्व सुझाव जागने का
मात्र अवसर जान ले

रक्तकण बन दौड़ता तेरी शिराओं में
मेरी शिराओं में दौड़ना होगा
यूँ श्वांस बन घुल चुका तेरे जीवन में
मेरी श्वांसो में घुलना होगा

योग जागरण से बस इतना जान ले
जीना मरना ही सीखेगा
जागरण-युक्त-जन्म जग में होते ही
स्वयंसिद्ध कहलायेगा

लौकिकसुप्ति अंतर्गामी अंतरआयामी
मौन तेरा वाणीयुक्त होगा
प्रेम,शांति,श्वांस,गहराई,ऊंचाई संबंध
का ज्ञान उसीपल में होगा

Monday, 2 March 2015

बुद्धिहीन मैं !





उस बुद्धिशील ने पूछा
रे पुष्प, कैसा ये मौन है
क्यूँकर तुझे ये मान है!
किसबात का अभिमान
जो इठलाता मुस्कराता
बिन बात , बिन कारण
सुनता नही कुछ कहता
सुगंध फैलाता जाता यूँ
अद्भुत गुण, अप्रतिम-
सौंदर्य पे इतराता जाता

बुद्धिहीन मैं! फूल हंसा
नहीं शब्द-भेद का ज्ञान
क्या ! क्यों ! कब ! कैसे
न मेरी प्रकति के साथी
प्रकृत जन्मता खिलता
पुनः प्रकति की गोद में
गिर जाता, समां जाता
जब जानता ही नहीं तो
मानूँ क्या ,जानू क्या !
मेरी भाषा कुछ और है
मौन प्रेमगंध भरपूर है

रे बुद्धियुक्त तार्किक!
सुनिश्चित करो रक्खो
गर्व के अनेकों अवसर
अभिमान के अधिकार
वितरण प्रसरण प्रचार
तुम्ही करो ये व्यापार !