Friday, 5 August 2016

निर्णय और सिरजनहार "प्रेम" (मीरदाद के गीत)



अध्याय -10

मीरदाद: मुझे कोई निर्णय नहीं देना है,
देना है केवल दिव्य ज्ञान ।

मैं संसार में निर्णय देने नहीं आया,
बल्कि उसे निर्णय के बंधन
से मुक्त करने आया हूँ ।
क्योंकि केवल अज्ञान ही न्यायधीश
की पोशाक पहनकर क़ानून के
अनुसार दण्ड देना चाहता है ।
अज्ञान का सबसे निष्ठुर
निर्णायक स्वयं अज्ञान है ।
मनुष्य को ही लो ।
क्या उसने अज्ञानवश अपने
आपको चीरकर दो नहीं कर डाला
और इस प्रकार अपने लिये तथा
उन सब पदार्थों के लिये जिनसे
उसका खण्डित संसार बना है
उसने मृत्यु को निमंत्रण नहीं दे दिया ?
मैं तुमसे कहता हूँ………
प्रभु और मनुष्य अलग नहीं है ।
केवल है प्रभु-मनुष्य या मनुष्य-प्रभु ।
वह एक है ।
उसे चाहे जैसा गुणा करें,
चाहे जैसे भी भाग दें, वह सदा एक है ।
प्रभु का एकत्व उसका स्थाई विधान है ।
यह विधान स्वयं लागू होता है ।
अपनी घोषणा के लिये,
या अपना गौरव तथा सत्ता
बनाये रखने के लिये इसे न न्यायालय की आवश्यकता है न न्यायाधीश की ।

सम्पूर्ण ब्रम्हांड–
जो दृश्य है और जो अदृश्य है–
एकमात्र मुख है जो निरंतर
इसकी घोषणा कर रहा है–
उनके लिये जिनके पास सुनने के लिये कान हैं ।
सागर, चाहे वह विशाल और गहरा है, क्या एक ही बूंद नहीं ?
धरती, चाहे वह इतनी दूर तक फैली है,
क्या एक ही ग्रह नहीं ?
इसी प्रकार सम्पूर्ण मानव–जाति
एक ही मनुष्य है;
इसी प्रकार मनुष्य, अपने सभी संसारों सहित,
एक पूर्ण इकाई है ।
प्रभु का एकत्व,
मेरे साथियों,
अस्तित्व का एकमात्र कानून है ।
इस्क दूसरा नाम है प्रेम ।
इसे जानना और स्वीकार करना जीवन को स्वीकार करना है ।
अन्य किसी कानून को स्वीकार करना अस्तित्व-हीनता या मृत्यु को स्वीकार करना है ।
जीवन अन्तर में सिमटना है;
मृत्यु बाहर बिखर जाना ।
जीवन जुड़ना है;मृत्यु टूट जाना ।
इसलिये मनुष्य,
जो द्वैतवादी है,
दोनों के बीच लटक रहा है ।
क्योंकि सिमटेगा वह अवश्य,
किन्तु बिखरकर ही ।
और जुड़ेगा वह अवश्य,
किन्तु टूटकर ही ।
सिमटने और जुड़ने में वह
कानून के अनुसार आचरण करता है;
और जीवन होता है उसका पुरस्कार ।
बिखरने और टूटने में
वह कानून के विरुद्ध आचरण करता है;
और मृत्यु होता है उसका कटु परिणाम ।
फिर भी तुम, अपनी दृष्टी के दोषी हो,
उन मनुष्यों पर निर्णय देने बैठते हो
जो तुम्हारी ही तरह अपने आपको दोषी मानते हैं ।
कितने भयंकर है निर्णायक और उनका निर्णय !
निःसंदेह, इससे कम होंगे मृत्यु-दण्ड के दो अभियुक्त जो एक-दूसरे को फाँसी की सजा सुना रहे हों ।
कम हास्यजनक होंगे, एक ही जुए में जुते दो बैल जो
एक-दूसरे को जोतने की धमकी दे रहे हों ।
कम घृणित होंगे एक ही
कब्र में पड़े दो शव जो
एक-दूसरे को कब्र के योग्य ठहरा रहे हों ।
कम दयनीय होंगे दो निटप अंधे
जो एक-दूसरे की आँखें नोच रहे हों ।

न्याय के हर आसन से बचो,मेरे साथियो ।

बैनून:- निर्णय दिवस के विषय में तुम क्या कहते हो ?
मीरदाद -हर दिन निर्णय-दिवस है, बैनून ।
पलक की हर झपक पर हर प्राणी के कर्मों का हिसाब किया जाता है|
कुछ छिपा नहीं रहता ।
कुछ अनतुला  नहीं रहता |
ऐसा कोई विचार नहीं है,
कोई कर्म नहीं,
कोई इच्छा जो विचार,
कर्म या इच्छा,
करनेवाले के अंदर अंकित न हो जाये ।
संसार में कोई विचार,
कोई इच्छा, कोई कर्म फल दिये बिना नहीं रहता;
सब अपनी विधा और प्रकृति के
अनुसार फल देते हैं|
जो कुछ भी प्रभु के विधान के अनुकूल होता है,
जीवन से जुड़ जाता है|
जो कुछ उसके प्रतिकूल होता है,
मृत्यु से जा जुड़ता है|

सब दिन एक सामान नहीं होते, बैनून ।
कुछ शांतिपूर्ण होते हैं,
वे होते हैं ठीक तरह से
बिताई गई घड़ियों के फल|
कुछ बादलों से घिरे होते हैं,
वे वे होते है मृत्यु में
अर्ध-सुप्त तथा जीवन में
अर्ध-जाग्रत अवस्था में बिताई गई घड़ियों के उपहार।
कुछ और होते हैं जो तूफ़ान पर सवार,
आँखों में बिजली की कौंध और
नथनों में बादल की गरज लिए तुम पर टूट पड़ते हैं।
वे ऊपर से तुम पर प्रहार करते हैं;
वे धरती पर तुम्हे सपाट गिरा देते है
और विवश कर देते हैं
तुम्हे धूल चाटने पर
और यह चाहने पर कि
तुम कभी पैदा ही न हुए होते।

ऐसे दिन होते हैं
जान- बूझ कर विधान के
विरुद्ध बिताई गईं घड़ियों का फल।
संसार में भी ऐसा ही होता है।
इस समय आकाश पर छाये हुए
साये उन सायों से रत्ती भर भी
कम अमंगल-सूचक नहीं हैं जो
जल-प्रलय के अग्रदूत बनकर आये थे।
अपनी आँखें खोलो और देखो।
जब तुम  दक्षिणी  वायु के घोड़े पर सवार
बादलों को उत्तर की ओर जाते देखते हो,
तो कहते हो कि ये तुम्हारे लिये बर्षा लाते हैं।
इंसानी बादलों के रुख से
यह अंदाजा लगाने में कि वे क्या लायेंगे,
तुम इतने बुद्धिमान क्यों नहीं हो।
क्या तुम देख नहीं सकते कि
मनुष्य कितनी बुरी तरह से
अपने जालों में उलझ गए हैं।
जालों में से निकल आने का दिन निकट है।
और कितना भयावह है वह दिन।
देखो,
कितनी सदियों के दौरान मन
और आत्मा की नसों से बुने गये हैं
मनुष्य के ये जाल!
मनुष्यों को उनके जालों में से
खींच निकालने के लिये उनके मांस तक को फाड़ना पड़ेगा;
उनकी हड्डियों तक को कुचलना पड़ेगा।
और मांस को फाड़ने और हड्डियों को कुचलने का काम मनुष्य
स्वयं ही करेंगे।
जब ढक्कन उठाये जायेंगे,
जो उठाये अवश्य जायेंगे,
और जब वर्तन बतायेंगे कि उनके अंदर क्या है,
जो वे निःसंदेह बतायेंगे,
तब मनुष्य अपने कलंक को कहाँ छिपायेंगे
और भागकर कहाँ जायेंगे?
जीवित उस दिन मृतकों से
ईर्ष्या करेंगे, और मृतक जीवितों को कोसेंगे।
मनुष्यों के शब्द उनके कन्ठ में चिपककर रह जायेंगे,
और प्रकाश उनकी पलकों पर जम जायेगा।
उनके ह्रदय में से निकलेंगे नाग और बिच्छू,
और यह भूलकर कि उन्होंने स्वयं
अपने ह्रदय में इन्हें बसाया
और पाला था, वे घबराकर चिल्ला उठेंगे,
कहाँ से आ रहे हैं ये नाग और बिच्छू?
अपनी आँखे खोलो और देखो।
ठीक इसी नौका के अंदर,
जो ठोकरें खा रहे संसार के लिए
आलोक- स्तम्भ के रूप में स्थापित की गई थी,
इतनी दलदल है
कि तुम उसे किसी तरह से भी पार नहीं कर सकते.
यदि आलोक-स्तम्भ ही फन्दा बन जाये,
तो उन यात्रियों की कैसी भयंकर
दशा होगी जो समुद्र में हैं!
मीरदाद तुम्हारे लिये
एक नई नौका का निर्माण करेगा।
ठीक इसी नीड़ के अन्दर वह
उसकी नींव रखकर उसे खड़ा करेगा।
इस नीड़ में से उड़ कर तुम
मनुष्य के लिये शांति का सन्देश लेकर नहीं,
अनन्त जीवन लेकर संसार में जाओगे।
उसके लिये अनिवार्य है कि तुम विधान को जानो और उसका पालन करो।
जमोरा: हम प्रभु के विधान को कैसे जानेंगे और कैसे करेंगे उसका पालन?
 अध्याय 11 

मीरदाद: प्रेम ही प्रभु का विधान है। तुम जीते हो ताकि तुम प्रेम करना सीख लो। प्रेम करते हो ताकि तुम जीना सीख लो।
मनुष्य को और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं।
और प्रेम क्या है,
सिवाय इसके कि प्रेमी प्रियतम को
सदा के लिये अपने अंदर लीन कर लें
ताकि दोनों एक हो जायें?
और मनुष्य को प्रेम किस्से करना है?
क्या उसे जीवन- वृक्ष के
एक विशेष पत्ते को चुनकर
उस पर ही अपना पूरा प्यार उड़ेल देना है?
तो फिर क्या होगा उस शाखा का
जिस पर वह पत्ता उगा है?
उस तने का जिससे वह शाखा निकली है?
उस छाल का जो उस शाखा की रक्षा करती है?
उन जड़ों का जो छाल,
तने, शाखाओं और पत्तो का पोषण करती हैं?
मिटटी का जिसने जड़ों को छाती से लगा रखा है?
सूर्य, समुद्र, वायु का जो मिटटी को उपजाऊ बनाते हैं?
यदि किसी पेड़ पर लगा एक
छोटा सा पत्ता तुम्हारे प्रेम का अधिकारी हो
तो पूरा पेड़ उसका कितना अधिक अधिकारी होगा?
जो प्रेम सम्पूर्ण के एक अंश को चुनता है,
वह अपने भाग्य में आप ही
दुखों की रेखा खींच लेता है।
तुम कहते हो, ”एक ही वृक्ष पर
भाँती-भाँती के पत्ते होते हैं।
कुछ स्वस्थ होते हैं, कुछ अस्वस्थ,;
कुछ सुंदर होते हैं, कुछ कुरूप;
कुछ दैत्याकार होते हैं, कुछ बौने।
पसंद करने और चुनने से
भला आप कैसे बच सकते हैं।”
मैं तुमसे कहता हूँ कि बीमारों के
पीलेपन में से तन्दुरुस्तों की ताजगी पैदा होती है।
मैं यह भी कहता हूँ कि कुरूपता
सुंदरता की रंग-पटटी, रंग और कूँची है,
और यह भी कि बौना,
बौना बौनापने कद में से कुछ न होता
यदि उसने अपने कद कद में से
कुछ कद दैत्य को भेंट न कर दिया होता|
तुम जीवन-वृक्ष हो।
अपने आपको टुकड़ों में बाँटने से सावधान रहो।
फल की फल से तुलना न मत करो,
न पत्ते की पत्ते से,
न शाखा की शाखा से;
और न तने की जड़ों से तुलना करो,
न वृक्ष की माटी-माँ से।
पर तुम ठीक यही करते हो
जब तुम एक अंश को बाकी अंशों से अधिक,
अथवा बाकी अंशों को छोड़कर
केवल एक अंश को ही प्यार करते हो।
तुम जीवन-वृक्ष हो।
तुम्हारी जड़ें हर स्थान पर है।
तुम्हारे फल हर मुंह में हैं।
इस वृक्ष पर फल जो भी हों;
इसकी शाखाएँ और पत्ते जो भी हों;
जड़ें जो भी हों, वे तुम्हारे फल हैं;
वे तुम्हारी शाखाये और पत्ते हैं;
वे तुम्हारी जड़ें है ।
यदि तुम चाहते हो कि
वह सदा दृढ़ और हरा-भरा रहें,
तो उस रस का ध्यान रखो
जिससे उसकी जड़ों का पोषण करते हों।
प्रेम जीवन का रस है,
जबकि घृणा मृत्यु का मवाद।
किन्तु प्रेम का भी,
रक्त की तरह,
हमारी रगों में बेरोक
प्रवाहित होना नितान्त आवश्यक है।
रक्त के प्रवाह को रोको तो
वह एक ख़तरा, एक संकट बन जायेगा।
और घृणा क्या है
सिवाय दबा दिये गये या रोक लिये गये प्रेम के,
जो इसी लिये घातक बिष बन जाता है।
खिलानेवाले और खानेवाले, दोनों के लिये;
घृणा करनेवाले और घृणा पानेवाले, दोनों के लिये?
तुम्हारे जीवन-वृक्ष का पीला पत्ता
केवल प्रेम से वंचित पत्ता है।
पीले पत्ते को दोष मत दो।
मुरझाई हुई शाखा प्रेम की भूखी शाखा है।
मुरझाई हुई शाखा को दोष मत दो।
सड़ा हुआ फल केवल घृणा का पाला गया फल है।
सड़े हुए फल को दोष मत दो।
बल्कि दोष दो अपने अंधे और कृपण मन को,
जो जीवन-रस को भीख की तरह थोड़े-से व्यक्तियों में बाँटकर अधिकाँश को उससे वंचित रखता है,
और ऐसा करते हुए अपने
आपको भी उससे वंचित रखता है।
आत्म-प्रेम के अतिरिक्त कोई प्रेम सम्भव नहीं है।
अपने अंदर सबको समा लेनेवाले अहम् के अतिरिक्त अन्य कोई अहम् वास्तविक नहीं हैं।
इसलिये प्रभु शब्द प्रेम है,
क्योंकि वह इसी अहम् से प्रेम करता है।
जब तक प्रेम तुम्हे पीड़ा देता है,
तुम्हे अपना वास्तविक अहम् नहीं मिला है,
न ही प्रेम की सुनहरी कुंजी तुम्हारे हाथ लगी है।
क्योंकि तुम एक क्षणभंगुर अहम् को प्रेम करते हो, तुम्हारा प्रेम भी क्षण-भंगुर है।
स्त्री के लिए पुरुष का प्रेम, प्रेम नहीं।
वह प्रेम का एक बहुत धुंधला चिन्ह है।
संतान के लिये माता या पिता का प्रेम,
प्रेम पवित्र मंदिर की देहरी-मात्र है।
जब तक हर पुरुष हर स्त्री का प्रेमी नहीं बन जाता
और हर स्त्री हर पुरुष की प्रेमिका,
जब तक हर संतान हर माता या पिता की संतान नहीं बन जाती और हर माता या पिता हर संतान की माता या पिता, जब तक स्त्री पुरुष हाड-मांस के साथ हाड-मांस के घनिष्ठ सम्बन्ध की डींग भले ही बाँध लें,
किन्तु प्रेम के पवित्र शब्द का उच्चारण कभी न करें।
क्योकि ऐसा करना प्रभु-निंदा होगी।
जब तक तुम एक भी मनुष्य को शत्रु मानते हो,
तुम्हारा कोई मित्र नहीं जिस ह्रदय में शत्रुता का वास है, वह मित्रता के लिये सुरक्षित
आवास कैसे हो सकता है?
जब तक तुम्हारे ह्रदय में घृणा है,
तुम प्रेम के आनंद से अपरिचित हो।
यदि तुम अन्य सभी वस्तुओं का
जीवन-रस से पोषण करते हो,
पर किसी छोटे-से कीड़े को उससे वंचित रखते हो,
तो वह छोटा-सा कीड़ा अकेला ही
तुम्हारे जीवन में कडवाहट घोल देगा।
क्योंकि किसी वस्तु या
किसी व्यक्ति से प्रेम करते हुए
तुम वास्तव में अपने आप से ही प्रेम करते हो।
इसी प्रकार,
किसी वस्तु या किसी
व्यक्ति से घृणा करते हुए
तुम वास्तव में अपने आपसे ही घृणा करते हो।
क्योंकि जिससे तुम घृणा करते हो
वह उसके साथ जुड़ा हुआ है
जिससे तुम प्रेम करते हो–
ऐसे जुड़ा हुआ है जैसे
किसी सिक्के के दो पह्लू
जिन्हें कभी एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
यदि तुम अपने प्रति ईमानदार रहना चाहते हो
तो उससे प्रेम करने से पहले जिसे तुम चाहते हो
और जो तुम्हे चाहता है,
उससे प्रेम करना होगा
जिससे तुम घृणा करते हो
और जो तुम्हे घृणा करता है|
प्रेम कोई गुण नहीं हैं।
प्रेम एक आवश्यकता है;
रोटी और पानी से भी बड़ी,
प्रकाश और हवा से भी बड़ी।
कोई भी अपने प्रेम करने का अभिमान न करें।
प्रेम को उसी सरलता और
स्वतंत्रता के साथ स्वीकार करो
जिस सरलता तथा
स्वतंत्रता से तुम सांस लेते हो।
क्योंकि प्रेम को उन्नत होने के लिये
किसी की आवश्यकता नहीं।
प्रेम तो उस ह्रदय को उन्नत कर देगा
जिसे वह अपने योग्य समझता है।
प्रेम के बदले कोई पुरस्कार मत माँगो।
प्रेम ही प्रेम का पर्याप्त पुरस्कार है,
जैसे घृणा ही घृणा का पर्याप्त दण्ड है।
न ही प्रेम के साथ कोई हिसाब-किताब रखो;
क्योंकि प्रेम अपने सिवाय किसी और को
हिसाब नहीं देता।
प्रेम न उधार देता है
न उधार लेता है;
प्रेम न खरीदता है,
न बेचता है,
बल्कि जब देता है
तो अपना सब-कुछ दे देता है;
और जब लेता है तो सब-कुछ ले लेता है।
इसका लेना ही देना है।
इसका देना ही लेना है।
इसलिये यह आज,कल
और कल के बाद भी सदा एक-सा रहता है।
एक विशाल नदी ज्यों-ज्यों अपने आपको समुद्र में खाली करती जाती है,
समुद्र उसे फिर से भरता जाता है।
इसी तरह तम्हे अपने आपको प्रेम
में खाली करते रहना है,
ताकि प्रेम तुम्हे सदा भरता रहे।
तालाब, जो समुद्र से मिला उपहार
उसी को सौंपने से इनकार करता है,
एक गंदा पोखर बनकर रह जाता है।
प्रेम में न अधिक होता है, न कम।
जिस क्षण तुम उसे किसी श्रेणी में
रखने या मापने का प्रयत्न करते हो,
उसी क्षण वह तुम्हारे हाथ से निकल जाता है,
और पीछे छोड़ जाता है
अपनी कडवी यादें।
न प्रेम में अब और तब होता है,
न ही यहाँ और वहाँ।
सब ऋतुएं प्रेम की ऋतुएँ हैं,
सब स्थान प्रेम के निवास के योग्य स्थान।
प्रेम कोई सीमा या बाधा नहीं जानता।
जिस प्रेम के मार्ग को किसी भी प्रकार की बाधा रोक लें,
वह अभी प्रेम कहलाने का अधिकारी नहीं है।
मैं अकसर तुम्हे कहते सुनता हूँ
कि प्रेम अंधा होता है,
अर्थात उसे अपने प्रियतम में
कोई दोष दिखाई नहीं देता।
इस प्रकार का अंधापन सर्वोत्तम दृष्टि है।
काश तुम सदा इतने अंधे होते कि तुम्हे किसी भी वस्तु में कोई दोष दिखाई न देता।
स्पष्टदर्शी और बेधक होती है प्रेम की आँख।
इसलिए उसे कोई दोष दिखाई नहीं देता।
जब प्रेम तुम्हारी दृष्टि को निर्मल कर देगा,
तब कोई भी वस्तु तुम्हे प्रेम के
अयोग्य दिखाई नहीं देगी।
केवल प्रेमहीन,
दोषपूर्ण आँख सदा दोष खोजने में व्यस्त रहती है।
जो दोष उसे दिखाई देते हैं वे उसके अपने ही
दोष होते हैं।
प्रेम जोड़ता है। घृणा तोडती है।
मिटटी और पत्थरों का यह
विशाल और भारी ढेर,
जिसे तुम पूजा शिखर कहते हो,
क्षण भर में बिखर जाता
यदि इसे प्रेम से बाँध न रखा होता।
तुम्हारा शरीर भी,
चाहे वह नाशवान प्रतीत होता है,
विनाश का प्रतिरोध अवश्य कर सकता था
यदि तुम उसके प्रत्येक कोषाणु को
समान लगन के साथ प्रेम करते।
प्रेम जीवन के मधुर संगीत से स्पंदित शान्ति है,
घृणा मृत्यु के पैशाचिक धमाकों से आकुल युद्ध है।
तुम क्या चाहोगे?
प्रेम करना और अनन्त शान्ति में रहना,
या घृणा करना और अनन्त युद्ध में जुटे रहना?
समस्त धरती तुम्हारे अंदर जी रही है।
सभी आकाश तथा उनके निवासी
तुम्हारे अंदर जी रहे हैं।
अतः धरती और उसकी गोद में पल रहे
सब बच्चों से प्रेम करो
यदि तुम अपने आप से प्रेम करना चाहते हो।
और आकाशों तथा उनके सब वासियों से प्रेम करो
यदि तुम अपने आप से प्रेम करना चाहते हो।
तुम नरौन्दा से घृणा क्यों करते हो, अबिमार ?
नरौन्दा: मुर्शिद की आवाज और उनके विचार-प्रवाह में इस आकस्मिक परिवर्तन से सब अचम्भे में पड़ गये।
मैं और अबिमार तो अपने आपसी मन-मुटाव के बारे में ऐसा स्पष्ट प्रश्न पूछे जाने पर अवाक रह गये,
क्योंकि उस मन-मुटाव हमने
बड़ी सावधानी के साथ सबसे छिपाकर रखा था
और हमें विश्वास था, जो अकारण नहीं था,
कि उसका किसी को पता नहीं है।
सबने परम आश्चर्य के साथ हम
दोनों की ओर देखा और
अबिमार के होंठ खुलने की प्रतीक्षा करने लगे।
अबिमार:(धिक्कार्पूर्ण दृष्टि से मुझे देखते हए) नरौन्दा, क्या मुर्शिद को तुमने बताया ?
नरौन्दा: जब अबिमार ने मुर्शिद कह दिया है
तो मेरा ह्रदय प्रसन्ता से फूल उठा है,
क्योंकि जब मीरदाद ने अपना भेद खोला उससे बहुत पहले हमारे बीच इसी शब्द पर मतभेद पैदा हुआ था;
मैं कहता था कि वह शिक्षक है
जो लोगों को दिव्य ज्ञान का मार्ग दिखने आया है,
और अबिमार का हठ था
कि वह केवल साधारण व्यक्ति है।
मीरदाद: नरौन्दा को संदेह की
दृष्टि से न देखो, अबिमार,
क्योंकि वह तुम्हारे द्वारा लगाए गए दोष से मुक्त है।
अबिमार: तो फिर तुम्हे किसने बताया?
क्या तुम मनुष्यों के विचारों को भी पढ़ लेते हो?
मीरदाद: मीरदाद को न गुप्तचरों की
आवश्यकता है न दुभाषियों की।
यदि तुम मीरदाद से उसी
तरह प्रेम करते जैसे वह तुमसे करता है ,
तो तुम आसानी से उसके
विचारों को पढ़ लेते और
उसके ह्रदय के अंदर भी झाँक लेते|
अबिमार: एक अंधे और बहरे
मनुष्य को क्षमा करो, मुर्शिद।
मेरे आँख और कान खोल दो,
क्योंकि मैं देखने और सुनने
के लिए उत्सुक हूँ।
मीरदाद: केवल प्रेम ही चमत्कार कर सकता है।
यदि तुम देखना चाहते हो तो
अपनी आँख की पुतली में प्रेम को बसा लो।
यदि तुम सुनना चाहते हो
तो अपने कान के परदे में कान को स्थान दो।
अबिमार: किन्तु मैं किसी से घृणा नहीं करता,
नरौन्दा से भी नहीं।
मीरदाद: घृणा न करना प्रेम करना
नहीं होता, अबिमार।
क्योंकि प्रेम एक क्रियाशील शक्ति है;
और जब तक यह तुम्हारी हर चेष्टा को,
तुम्हारे हर पद को राह न दिखाये,
तुम अपना मार्ग नहीं पा सकते;
और जब तह प्रेम तुम्हारी हर
इक्षा में हर विचार में हर
विचार में पूरी तरह समा न जाये,
तुम्हारी इच्छाएँ तुम्हारे सपने में
कँटीली झाड़ियाँ होंगी तुम्हारे
विचार तुम्हारे जीवन में शोक गीत होंगे।
इस समय मेरा दिल रबाब है,
और मेरा गाने को जी चाहता है।
ऐ भले जमोरा,
तुम्हारा रबाब कहाँ है ?
जमोरा: क्या मैं जाकर उसे ले आऊं, मुर्शिद?
मीरदाद: जाओ, जमोरा।
जब जमोरा रबाब लेकर लौटा तो
मुर्शिद ने धीरे से उसे अपने हाथ में ले लिया
और स्नेह के साथ उस पर झुकते हुए
उसके हर तार का सुर मिलाया
और फिर उसे बजाते हुए गाना शुरू कर दिया।
मीरदाद: तैर, तैर, री नौका मेरी,
प्रभु तेरा कप्तान।
उगले जीवन और मृतक पर
नरक अपना प्रकोप भयंकर,
आग में उसकी तप कर
धरती हो जाये ज्यों पिघलता सीसक,
नभ-मंडल में रहे न बाकी किसी
तरह का कोई निशान।
तैर,तैर, री नौका मेरी,
प्रभु तेरा कप्तान।
चल, चल री नौका मेरी,प्रेम
तेरा कम्पास।
उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम
कोष अपना तू जाकर बाँट।
तरंग-श्रंग पर तुझको
अपने कर लेगा तूफ़ान सवार,
मल्लाहों को अन्धकार में वहां से
तू देगी प्रकाश।
चल, चल री ऐ नौका मेरी,
प्रेम तेरा कम्पास।
बह, बह, री ऐ नौका मेरी,
लंगर है विश्वास।
गड़बड़ कर चाहे बादल गरजे,
कौंधे तड़ित कड़क के साथ,
थर्रा उठें अचल,
फट जाएँ,खण्ड-खण्ड हों,
फैले त्रास, मानव दुर्बल-ह्रदय हो जायें,
भूल जायें वे दिव्य प्रकाश,
पर बहती जा री नौका मेरी,
लंगर है विश्वास।
नरौन्दा: मुर्शिद ने गाना बन्द किया
और रबाब पर ऐसे झुक गये जैसे प्यार में खोई माँ छाती से लगे अपने बच्चे पर झुक जाती है।
और यद्यपि रबाब के तार अब
कम्पित नहीं हो रहे थे,
फिर भी अभी उसमे से
‘तैर, तैर, री नौका मेरी,
प्रभु तेरा कप्तान”
की धुन आ रही थी।
और यद्यपि मुर्शिद के होंठ बंद थे,
फिर भी उनका स्वर कुछ समय
तक नीड़ में गूँजता रहा,
और तरंगे बनकर तैरता हुआ
पहुँच गया चारों ओर ऊँ
ची-नीची चोटियों तक;
ऊपर पहाड़ियों और नीचे वादियों तक;
दूर अशान्त सागर तक;
ऊपर मेहराबदार नीले आकाश तक।
उस स्वर में सितारों की
बौछारें और इन्द्र-धनुष थे,
उसमे भूकम्प थे और साथ ही थीं
सनसनाती हवाएँ
और गीत के नशे में झूमती बुलबुलें।
उनमे कोमल, शबनम-लड़ी धुंध से ढके
लहराते सागर थे।
लगता था मानो सारी सृष्टि
आभार-भरी प्रसन्नता के साथ
उस स्वर को सुन रही हैं।
और ऐसा भी लगता था मानो
दूधिया पर्वत-माला
जिसके बीचोंबीच पूजा-शिखर था,
अचानक धरती से अलग हो गई है
और अन्तरिक्ष में तैर रही है—
गौरवशाली, सशक्त तथा
अपनी दिशा के बारे में आश्वस्त।
इसके बाद तीन दिन तक
मुर्शिद किसी से एक शब्द भी नहीं बोले।

Friday, 29 July 2016

संभव है क्या !




चाहत तो है श्वांस श्वांस पियूं श्वांस
अक्षतजीवन सहेजू,खर्च भी करूँ
वामनदेव सम इकपग में त्रिकाल
दुजे में त्रिलोक तीजे में राजबुद्धि
एकसाथ नाप लेना संभव है क्या !

चाहत तो है जरा को धक्का दे दूँ
बाल्य से दौड़ युवा ठहर संवारलूँ
अधिकार पूर्वक दोनों पीढ़ियों से
सामदामदंडभेद से लूँ यौवनभोग
ययाति बन के तुष्टि संभव है क्या !

"मैं" इकपात्र, इकवख्त, इकआयु
वख्त गया बात-चाह संभव है क्या
एक जगह दोबार फिसल भी जाएँ
एक वख्त में दोबार संभव है क्या !

एक साथ दो साँसे ! 
संभव है क्या !
एक साथ दो कदम 
संभव है क्या !

By Lata Tewari
29 /07/ 2016

Wednesday, 20 July 2016

सिरजनहार " मैं " (मीरदाद के गीत)




समस्त वस्तुओं का स्रोत और केंद्र है जब तुम्हारे मुंह
से "मैं" निकले तो तुरंत अपने हृदय में कहो, - 
" प्रभु  " ,  " मैं " की विपत्तियों में  
मेरा आश्रय बनो,और "मैं" के परम आनंद की ओर 
चलने में मेरा मार्ग दर्शन करो ।”


क्योंकि इस शब्द के अंदर .....!
यद्यपि यह अत्यंत साधारण है,
किन्तु प्रत्येक अन्य शब्द की आत्मा कैद है ।
एक बार उसे मुक्त कर दो,
तो सुगंध फैलाएगा तुम्हारा मुख,
मिठास में पगी होगी तुम्हारी जिव्हा,
और तुम्हारे प्रत्येक शब्द से
जीवन में आह्लाद का रस टपकेगा ।
उसे कैद रहने दोगे,
तो दुर्गन्ध पूर्ण होगा तुम्हारा मुख,
कडवी होगी तुम्हारी जिव्हा
और तुम्हारे प्रत्येक शब्द से
मृत्यु का मवाद टपकेगा ।
जब तक " मैं " की
चमत्कारी शक्ति को प्राप्त नहीं करोगे,
तब तक तुम्हारी हालत ऐसी होगी
यदि गाना चाहोगे तो आर्तनाद करोगे;
शांति चाहोगे तो युद्ध करोगे;
यदि प्रकाश में उड़ान भरना चाहोगे,
तो अँधेरे कारागारों में पड़े सिकुड़ोगे ।
तुम्हारा ”मैं” अस्तित्व की तुम्हारी चेतना मात्र है,
”मैं” के विचार–मात्र से तुम
अपने दिमाग में विचारों के
समुद्र में  हिलकोरने लगाते हो ।
वह समुद्र रचना है तुम्हारे "मैं"की
जो एक साथ विचार और विचारक दोनों है ।

यदि तुम्हारे विचार ऐसे हैं जो
चुभते,काटते या नोचते हैं,
तो समझ लो कि तुम्हारे
अंदर के ”मैं” ने ही उन्हें डंक,
दांत, पंजे प्रदान किये हैं …
मीरदाद चाहता है ….
कि तुम यह भी जान लो
कि जो प्रदान कर सकता है
वह छीन भी सकता है।
"मैं " भावना–मात्र से तुम
अपने हृदय में भावनाओं का
कुआँ खोद लेते हो ।
यह कुआँ रचना है तुम्हारे ”मैं” की
जो एक साथ अनुभव करनेवाला
और अनुभव दोनों है ।
यदि तुम्हारे हृदय में कंटीली झाड़ियाँ हैं,
तो जान लो तुम्हारे अंदर के ”मैं” ने ही उन्हें वहां लगाया है ।
मीरदाद चाहता है कि तुम यह भी जान लो
कि जो इतनी आसानी से लगा सकता है
वह उतनी आसानी से जड़ से उखाड़ भी सकता है । 
"मैं" के उच्चारण–मात्र से तुम शब्दों के एक विशाल समूह को जन्म देते हो;
प्रत्येक शब्द होता एक वस्तु का प्रतीक;
प्रत्येक वस्तु होती है एक संसार का प्रतीक;
प्रत्येक संसार होता है एक ब्रम्हाण्ड का घटक अंग ।
वह ब्रम्हाण्ड रचना है तुम्हारे " मैं " की
जो एक साथ स्रष्टा और स्रष्टि दोनों है । 
यदि तुम्हारी स्रष्टि में कुछ हौव्वे हैं,
तो जान लो कि तुम्हारे अंदर के "मैं” ने ही
उन्हें अस्तित्व दिया है ।
मीरदाद चाहता है कि यह भी जान लो कि
जो रचना कर सकता है
वह नष्ट भी कर सकता है ।

जैसा स्रष्टा होता है, वैसी ही होती है उसकी रचना । 
क्या कोई अपने आप से अधिक
रचना रच सकता है?
या अपने आपसे कम?
स्रष्टा केवल अपने आपको रचता है—
-न अधिक, न कम ।
एक मूल– स्रोत है "मैं"
जिसमे वे सब वस्तुएं प्रवाहित होती हैं और जिसमे वे वापस चली जाती हैं ।
जैसा मूल स्रोत होता है, वैसा ही होता है उसका प्रवाह भी
इसलिए जैसी तुम्हारी चेतना है, वैसा ही तुम्हारा " मैं " ।
जैसा तुम्हारा " मैं " है वैसा ही है तुम्हारा संसार ।
यदि इस ; " मैं " का अर्थ स्पष्ट और निश्चित है,
तो तुम्हारे संसार का अर्थ भी स्पष्ट और निश्चित है;
और तब तुम्हारे शब्द कभी भूलभुलैयाँ नहीं होंगे;
न ही होंगे तुम्हारे कर्म पीड़ा के घोंसले ।
यदि यह परिवर्तन–रहित तथा चिर स्थाई है,
तो तुम्हारा संसार भी परिवर्तन रहित और चिर स्थाई है;
और तब तुम हो समय से भी अधिक महान
तथा स्थान से भी कहीं अधिक विस्तृत ।
यदि यह अस्थायी और अपरिवर्तनशील है,
तो तुम्हारा संसार भी अस्थायी और अपरिवर्तनशील है;
और तुम हो धुएं की एक परत
जिस पर सूर्य अपनी कोमल सांस छोड़ रहा है ।
यदि यह एक है तो तुम्हारा संसार भी एक है;
और तब तुम्हारे और स्वर्ग तथा पृथ्वी के
सब निवासियों के बीच अनंत शान्ति है ।
यदि यह अनेक है तो तुम्हारा संसार भी अनेक है;
और तुम अपने साथ तथा प्रभु के असीम साम्राज्य के
प्रत्येक प्राणी के साथ अन्त–हीन युद्ध कर रहे हो 
”मैं” तुम्हारे जीवन का केंद्र है
जिसमे से वे वस्तुएं निकलती हैं
जिनसे तुम्हारा सम्पूर्ण संसार बना है,
और जिनमे वे सब वापस आकर मिल जाती हैं । 
यदि यह स्थिर है तो तुम्हारा संसार भी स्थिर है;
ऊपर या नीचे की कोई भी शक्ति
तुम्हे दायें या बाएं नहीं डुला सकती ।
यदि यह चलायमान है तो
तुम्हारा संसार भी चलायमान है;
और तुम एक असहाय पत्ता हो
जो हवा के क्रुद्ध बवंडर की लपेट में आ गया है ।
और देखो तुम्हारा संसार स्थिर अवश्य है,
परन्तु केवल अस्थिरता में ।
निश्चित है तुम्हारा संसार,
परन्तु केवल अनिश्चितता में;
नित्य है तुम्हारा संसार,
परन्तु अनित्यता में;
एक है तुम्हारा संसार, परन्तु केवल अनेकता में ।
तुम्हारा संसार है कब्रों में बदलते पालनो का,
और पालनो में बदलती कब्रों का,
रातों को निगलते दिनों का,
और दिनों को उगलती रातों का,
युद्ध की घोषणा कर रही शान्ति का,
और शान्ति की प्रार्थना कर रहे युद्धों का,
अश्रुओं पर तैरती मुस्कानों का,
और मुस्कानों से दमकते अश्रुओं का ।
तुम्हारा संसार निरंतर
प्रसव-वेदना में तड़पता संसार है,
जिसकी धाय है मृत्यु ।
तुम्हारा संसार छलनियों और झरनियों का संसार है
जिसमे कोई दो छलनियाँ या झरनियाँ एक जैसी नहीं हैं ।
और तुम निरंतर उन वस्तुओं को
छानने और झारने में खपते रहे हो
जिन्हें छाना या झारा नहीं जा सकता ।
तुम्हारा संसार अपने ही विरुद्ध विभाजित है
क्योंकि तुम्हारे अंदर का ”मैं” इसी प्रकार विभाजित है ।
तुम्हारा संसार अवरोधों और बाड़ों का संसार है,
क्योंकि तुम्हारे अंदर का ”मैं” अवरोधों बाड़ों का ;मैं” है ।
कुछ वस्तुओं को यह पराया मान कर
बाड के बाहर कर देना चाहता है;
कुछ को अपना मानकर बाड़ के अंदर ले लेना चाहता है । 
परन्तु जो वस्तु बाड़ के बाहर है
वह सदा बलपूर्वक बाड़ के अंदर आती रहती है,
और जो वस्तु बाड़ के अंदर है
वह सदा बलपूर्वक बाड़ के बाहर जाती रहती है । 
क्योंकि वे एक ही माँ की–तुम्हारे ”मैं” की—
संतान होने के कारण अलग-अलग नहीं होना चाहतीं ।
और तुम, उनके शुभ मिलाप से प्रसन्न होने के बजाय,
अलग न हो सकनेवालों को अलग करने की
निष्फल चेष्टा में ही जुट जाते हो ।
"मैं" के अंदर की दरार को भरने की बजाय
तुम अपने जीवन को छील-छील कर नष्ट करते जाते हो; 
मीरदाद तुम्हारे ”मैं” के अंदर की दरारों को भर देना चाहता है
ताकि तुम अपने साथ, मनुष्य-मात्र के साथ, और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ शांतिपूर्वक जी सको ।
मीरदाद तुम्हारे ”मैं” के अंदर भरे विष को सोख लेना चाहता है
ताकि तुम ज्ञान की मिठास का रस चख सको ।
मीरदाद तुम्हे तुम्हारे ”मैं” को तोलने की विधि सिखाना चाहता है
ताकि तुम पूर्ण संतुलन का आनंद ले सको |
यद्यपि तुममे से हर-एक
अपने-अपने ” मैं ” में केन्द्रित हैं,
फिर भी तुम सब एक
मैं में केन्द्रित हो
प्रभु के  मैं  में |

प्रभु का ‘मैं’…..
प्रभु का शाश्वत,
एकमात्र शब्द है.
इसमें प्रभु प्रकट होता है
जो परम चेतना है.
इसके बिना
वह पूर्ण मौन ही रह जाता.
इसी के द्वारा
स्रष्टा ने अपनी
रचना की है.
इसी के द्वारा वह निराकार
अनेक आकार धारण करता है
जिनमे से होते हुए जीव फिर
से निराकारता में पहुँच जायेंगे.
अपने आपका अनुभव करने के लिये;
अपने आप का चिंतन करने के लिये;
अपने आप का उच्चारण करने केलिये
प्रभु को ‘मैं’ से अधिक और कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं.
इसलिए ‘मैं’ उसका एकमात्र शब्द है.
इसलिए यही शब्द है .
प्रभु ‘मैं’ कहता है
तो कुछ भी अनकहा नहीं रह जाता.
देखे हुए लोक और अनदेखे लोक;
जन्म ले चुकी वस्तुएं और जन्म लेने
की प्रतीक्षा कर रही वस्तुएं;
बीत रहा समय
और अभी आने वाला समय – सब;
सब-कुछ ही,
रेत के  एक-एक कण तक,
इसी शब्द के द्वारा प्रकट होता है
और इसी शब्द में समा जाता है.
इसी के द्वारा सब वस्तुएं रची गईं थी.
इसी के द्वारा सभी का पालन होता है .
यदि किसी किसी शब्द का कोई अर्थ न हो,
तो वह शब्द शून्य में गूंजती केवल एक प्रतिध्वनी है.
यदि इसका अर्थ सदा एक ही न हो,
तो यह गले का कैंसर जबान पर पड़े छाले से अधिक
और कुछ नहीं |
प्रभु का शब्द शून्य में गूंजती प्रतिध्वनी नहीं है,
न ही गले का कैंसर है,
सिवाय उनके लिए जो दिव्य ज्ञान से रहित हैं .
क्योंकि दिव्य ज्ञान वह पवित्र शक्ति है ….
जो शब्द को प्राणवान बनाती है
और उसे चेतना के साथ जोड़ देती है.
यह उस अनंत तराजू की डंडी है
जिसके दो पलड़े हैं —
आदि-चेतना और शब्द .
आदि-चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान —-
देखो साधुओ ! अस्तित्व की यह त्रिपुटी,
वे तीन जो एक हैं, वह एक जो तीन हैं,
परस्पर समान, सह-व्यापक, सह-शाश्वत; आत्म-संतुलित, आत्म- ज्ञानी, आत्म-पूरक. यह न कभी घटती है न बढती है —
सदैव शांत, सदैव सामान।
यह है पूर्ण संतुलन !
मनुष्य ने इसे "प्रभु" नाम दिया है,
यद्यपि यह इतना विलक्षण है कि
इसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता.
फिर भी पावन है यह नाम,
और पावन है वह जिव्हा जो इसे पावन रखती है .
मनुष्य यदि इस प्रभु की संतान नहीं तो और क्या है?
क्या वह प्रभु सकता है से भिन्न हो?
क्या बड़ का वृक्ष अपने बीज के अंदर समाया हुआ नहीं है?
क्या प्रभु मनुष्य के अंदर व्याप्त नहीं है?
इसलिए मनुष्य भी एक ऐसी ही
पावन त्रिपुटी है; चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान.
मनुष्य पोतड़ों में लिपटा एक परमात्मा है।
समय एक पोतड़ा है,
स्थान एक पोतड़ा है,
देह एक पोतड़ा है और
इसी प्रकार हैं इन्द्रियां तथा
उनके द्वारा अनुभव-गम्य वस्तुएं भी ।
माँ भली प्रकार जानती है
की पोतड़े शिशु नहीं हैं ।
परन्तु बच्चा यह नहीं जानता ।
अभी मनुष्य का अपने पोतड़ों
में बहुत ध्यान रहता है
जो हर दिन के साथ,
हर युग के साथ बदलते रहते हैं ।
इसलिए उसकी चेतना में
निरंतर परिवर्तन होता रहता है;
इसीलिए उसका शब्द,
जो उसकी चेतना की
अभिव्यक्ति है,
कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता;
और इसीलिए उसके विवेक पर धुंध छाई रहती है;
और इसीलिए उसका जीवन असंतुलित है ।
यह तिगुनी उलझन है ।
इसीलिए मनुष्य सहायता के लिए प्रार्थना करता है ।
उसका आर्तनाद अनादि काल से गूँज रहा है ।
वायु उसके मिलाप से बोझिल है ।
समुद्र उसके आंसुओं के नमक से खारा है ।
धरती पर उसकी कब्रों से गहरी झुर्रियां पड़ गईं हैं ।
आकाश उसकी प्रार्थनाओं से बहरा हो गया है ।
और यह सब इसलिए कि
अभी तक वह ; "मैं" का अर्थ
नहीं समझता जो उसके लिए है
पोतड़े और उसमे लिपटा हुआ शिशु भी ।
‘मैं’ कहते हुए मनुष्य शब्द को
दो भागों में चीर देता है;
एक, उसके पोतड़े;
दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व ।
क्या मनुष्य वास्तव में
अविभाज्य को विभाजित कर देता है ?
प्रभु न करे ; ऐसा हो ।
अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती–
ईश्वर की शक्ति भी नहीं ।
मनुष्य अपरिपक्व है
इसलिए विभाजन की कल्पना करता है ।
और मनुष्य, एक शिशु,
उस अनंत अस्तित्व को अपने
अस्तित्व का बैरी मानकर लड़ाई
के लिए कमर कस लेता है और
युद्ध की घोषणा कर देता है ।
इस युद्ध में, जो बराबरी का नहीं है,
मनुष्य अपने मांस के चीथड़े उडा देता है,
अपने रक्त की नदियाँ बहा देता है;
जबकि परमात्मा, जो माता भी है
और पिता भी, स्नेह-पूर्वक देखता रहता है,
क्योंकि वह भली-भाँती जानता है
कि मनुष्य अपने उन मोटे पर्दों
को ही फाड़ रहा है और अपने
उस कड़वे द्वेष को ही बहा रहा है
जो उस एक के साथ उसकी
एकता के प्रति उसे अँधा बनाय हुए है ।
यही मनुष्य की नियति है–
लड़ना और रक्त बहाना और मूर्छित हो जाना,
और अंत में जागना
और ‘मैं’ के अंदर की दरार को
अपने मांस से भरना
और अपने रक्त से उसे
मजबूती से बंद कर देना ।
इसलिए साथियों……..
तुम्हे सावधान कर दिया गया है–
और बड़ी बुद्धिमानी के साथ
सावधान कर दिया गया है–
कि ‘मैं’ का कम से कम प्रयोग करो ।
क्योंकि जब तक ‘मैं’ से
तुम्हारा तात्पर्य पोतड़े है,
उसमे लिपटा केवल शिशु नहीं;
जब तक इसका अर्थ तुम्हारे
लिए एक चलनी है, कुठली नहीं,
तब तक तुम अपने
मिथ्या अभिमान को छानते रहोगे 
और बटोरोगे केवल मृत्यु को, 
उससे उत्पन्न सभी पीडाओं और वेदनाओं के साथ |

Monday, 18 July 2016

सोचती हूँ !

मुझे पता है , आह !
पता  है कि सोचने से कुछ नहीं बदलेगा 
क्यूंकि मौसम बदलने का अपना एक चक्र है
फिर भी अनवरत सोचती हूँ ,  क्यूंकि जानती हूँ
"संवेदन" + "शीलता" जुड़वां इसी सोच में ही रहती है 
भू-कोख से जुड़वाँ जन्म लेती हैअसंख्य जुड़वाँ संताने
 प्रेम घृणा , आचार व्यभिचार , आदर निरादर ,जीवन मृत्यु 
परिचित हूँ सत्य से तब भी उसे पोषित इसे नेस्तनाबूत करती हूँ 
सोचना ही काफी नहीं  कुछ करने के लिए , फिर भी सोचती हूँ मैं 
सोचना हजार दफे अच्छा है, एक  मूक बधिर की शहादत के सामने 
युगांतर से द्रौपदी सी" धुआं है  तो  आग का वजूद भी है " सोचती हूँ 

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते  रमन्ते तत्र  देवता " किसने ! और क्यूँ ! कहा होगा !
खेंची मर्यादा रेखा अंदर खड़ी सीता युगों से एक ही श्राप संजोए है ,सोचती हूँ !
रावण से छली राम से दण्डित वाल्मीकिआश्रय में जुड़वां की जन्मदात्री जानकी 
सतयुग आ पहुंचा अपने ही युगांत को राम की रामायण-गाथा के अंत के साथ ही 
त्रेता का अंत था सतयुग का आरम्भ और अगर माने तो  शायद सतयुग का अंत ही 
द्वापर का आरम्भ भी था , यात्रा करते चलते चलते  समय आ पहुंचा अपने युगांत को 
द्वापर-अंत कथा ;  कौरव् पांडव के खून से  लिखी , स्त्री के अपमान की नींव पे  खड़ी  
अद्भुत संयोग ऋषियों के देश का सनातनी धर्म का राम कृष्ण की धरती का ये सच है 

पाण्डुपुत्र से योद्धा बलशाली पति, इंद्रप्रस्थ सदृश विलक्षण परकोटे में अतिसुरक्षित , 
किन्तु असुरक्षित, राजनीती से अमर्यादित होती द्रौपदी कालांतर से शोषित, सोचती हूँ !
अग्नि-जा , प्रखर , तेजस्वीन , बुद्धियुक्त , अप्रतिम नारीसौंदर्य से भरी थी, कृष्ण की सखी 
अपने राजदरबार में वो राजवधु लाचार,पीड़ित, ह्रदय  में श्राप की धधकती ज्वाला को समेटे 
क्रोध, क्षोभ, लज्जा -जल से पूरित लाल-नेत्र,  निरुत्तर दरबार में  उपस्थ्ति प्रतिष्ठित जन के बीच 
स्त्री-अस्मिता-उत्तर तलाशते अश्रु औ उत्तर में झुके हुए बेबस नेत्र  मौन, जिह्वा, वो बेबस पांचाली 
आज भी दुःशासन दुर्योधन सम खुले बेरोकटोक घूमते कितने ही असंख्य,दम्भित अट्टहास के साथ 
कहर ढाते अपनी दमित अतृप्त वासनाओ के, कभी काल बन टूट पड़ते अँधेरे उजाले में सोचती हूँ ! 
अहंकारी छद्म धूल से सने, गुबार उड़ाते , देश काल समय धर्म की सभी सीमायें जो पार कर चुके है 
दुः साहसी दुःशासन दुर्योधन और सहयोगी मदांध चीरहरण में मग्न,वो ही  द्रौपदी दोनों हाथ जोड़े आज भी 
कृष्ण से मदद की गुहार करती  नजर आती  है,उसी समाज में, उसी समाज को , चीख चीख मानो कहती जाती है- " ये श्राप है मेरा -जिस परिवार में स्त्री सम्मान नहीं वो परिवार दंश ग्रस्त गर्त की राह पे  है , जिस देश में स्त्री का मान नहीं , वो देश  दंश ग्रस्त हो पतन की  राह  पे है ! बुद्धिमान पराकर्मी रावण की धूं..धूं कर जलती लंका समान ही उस देश का भी समूल विनाश निश्चित है , मैं अग्निपुत्री, कृष्णसखी, पांचली आज अपने बालों को खोल  प्रतिज्ञा लेती हूँ, रक्त से  स्नान  पश्चात ही ये बाल बंधेंगे भरे समाज में  ये घोषित करती हूँ, कौरववंश का नाश  पाण्डु पुत्रों के हाथ सुनिश्चित है,इस युग का अंत सुनिश्चित है  ! "

अफ़सोस  !! हमेशा की तरह ,  माता गांधारी , पिता धृतराष्ट्र , दादा भीष्म, और द्रोण सम  गुरुजन समेत नेत्र झुकाए लज्जित  मौन। कभी न समाप्त होने वाले उस श्राप की गूंज के साथ , दुर्योधन और दुःशासन  का कभी न समाप्त होने वाला अट्टहास भी सदियों से ऐसे ही गूंज  रहा है।


अंत में एक प्रश्न और एक जिज्ञासा  अधूरा हमेशा की तरह :- 

तो क्या हर युग का अंत  ऐसे ही  निश्चित है  जहाँ राक्षस  दम्भी  हो  शक्ति का दरुपयोग  करने लगे. , साम्राज्य  का विस्तार  करते जाएँ  , साधू (सज्जन ) समुदाय  सीमित होता जाये , संकेत है ये एक और युगांत का।

और  .. मैं  , सोचती हूँ !! 
यूँ  .. ही   ,  सोचती हूँ !! 
सदियों से  , सोचती हूँ !! 

Friday, 15 July 2016

Sote raho



Rumi's poetry Translation :- (Phonetics - Devnagri)
सोते रहो 

Tum mai jo prem naa mehsus kar sake
Sote raho
तुम  मैं  जो प्रेम न महसूस कर सके 
सोते रहो 

Tum mai jo prem ke peeda
Naa mehsus kar sake
तुम मैं जो प्रेम की पीड़ा 
न महसूस कर सके 


Herdiya mai kabhi prem jawar naa uthhe
Sote raho
हृदय में कभी प्रेम ज्वार न उठे 
सोते रहो 

Jo samagam ko tadapte naa ho
Jo lagataar puchate naa rahtey ho
Kahan hai wo!
Sote raho
जो समागम को तड़पते न हो 
जो लगातार पूछते न रहते हो 
कहाँ है वो !
सोते रहो 

Prem path sabhi dharm sampardayo se baahar hai
Agar dhokha aur pakhand hai tumhara dhang
Sote raho
प्रेम पथ सभी धर्म सम्प्रदायों से बाहर है 
अगर धोखा और पाखण्ड  है तुम्हारा ढंग 
सोते रहो !

Gar tum pighalte nahi taambe ke tarah, takee
Rasaynik sona bana sake
Sote raho
घर तुम पिघलते नहीं  ताम्बे की तरह , ताकि 
रासायनिक  सोना बन सके 
सोते रहो !

Gar tum sharabi ke tarah girate ho
Bayain, dayain
Agyan ke raat beet gayee
Prarthna ka samay ho chuka
Sote raho
गर तुम शराबी की तरह गिरते हो 
बाएं दाएं 
अज्ञान की रात  बीत गयी 
प्रार्थना  का समय हो चुका 
सोते रहो !

Kismat ne maire neend lay lee hai par chunkee
Abhi tumhare nahi lee hai, jawan aadmee
Sote raho
किस्मत  ने  मेरी नींद ले ली है पर चूँकि 
अभी तुम्हारी नहीं ली है , जवां आदमी 
सोते रहो !

Ham to gir gaye hain prem ke hathon main,
Tum abhi tak tumhare haath hi ho
Sote raho
हम तो गिर गए है  प्रेम के हाथों में 
तुम अभी तक तुम्हारे हाथ ही हो 
सोते रहो !

Main wehi hoon jo mast hai prem mai
Tum abhi bhog bhojan mai mast ho
Sote raho
मैं वही हूँ जो मस्त है प्रेम में 
तुम अभी भोग भोजन में मस्त हो 
सोते रहो !

Maine to apnaa sir de diya hai
Aur kehane ko kuch nahi
Par tum to gher sakte ho sawyam ko
Shabdo ke libas mai
Sote raho
मैंने तो अपना सर दे दिया है 
और कहने को कुछ नहीं 
पर तुम तो घेर सकते हो स्वयं को 
शब्दों के लिबास में 
सोते रहो !

Jab main tumhara chehra dekhta hoon
Bandh ker leta hu apnee aakhen
जब मैं तुम्हारा चेहरा देखता हूँ 
बंद क्र लेता हूँ अपनी आँखें 
Main tumhare wajud se bharaa hoon
Main hu sharabi tere hone se
मैं तुम्हारे वजूद से भरा हूँ 
मैं हूँ शराबी तेरे होने से 
Mil sake mujhe soloman kee mohar
Main pighal gaya hu moam ke tarah
मिल सके सोलोमन की मोहर 
मैं पिघल गया हूँ मोम की तरह 
Jab tumhara chehra dekhta hu
Main apni drhadhata samarpit karta hoon
 जब तुम्हारा चेहरा देखता हूँ 
मैं अपनी दृढ़ता समर्पित करता हूँ 
Aur ban jata hoon aah tere hothho kee
और बन जाता हूँ आह तेरे होंठों की 
Tum mere hatho mai the
Aur main dhhoondta rahaa tumhain
तुम मेरे हाथों में थे 
और मैं ढूंढ़ता रहा तुम्हे 
Andhe aadmi kee tarah
अंधे आदमी की तरह 
Main tha tere hathoon main, par sawaal poochhta rahaa
मैं था तेरे हाथों में पर सवाल पूछता रहा 
Un se, jo agyaani thay
उन से  , जो अज्ञानी थे ! 
Main jaroor rahaa hoon anjaan ya sharabi
Apnaa hi swaran churata tha
मैं जरूर रहा हूँ अंजान या शराबी 
अपना ही स्वर्ण चुराता था 
Main jaroor raha hoon pagal kee ghhus kar
Apne hi chameli ke baagh se churataa rahaa
 मैं जरूर रहा हूँ  पागल के घुस कर 
अपने ही चमेली के बाग़ से चुराता रहा 
Main tumhaari marjee par bahut marodha gaya hoon
मैं तुम्हारी मर्जी पे बहुत मरोड़ा गया हूँ 
Shams tabreez ke
Par main sukhi hoon apne dhukhkhon main
शम्स तरबीज के पर मैं सुखी हूँ अपने दुखों में 
Utsav ki shuruaat main
Badhte huai chaand ki tarah
उत्सव की शुरआत में
बढ़ते हुए चाँद की तरह
Jab prem achanak se aaye aur
Khatkhatai tumhari khidki
जब प्रेम अचानक से आये और 
खटखटाये तुम्हारी खिड़की 
Daudo aur pehaele use bheetar lo
Aur tark ka darwaja band karo
दौड़ो और पहले उसे भीतर लो 
और तर्क का दरवाजा बंद करो 
Jaraa sa ishara bhi prem ko door bhej dega
Us dhuain ki tarah jo dubaa deta hai taazgi Subah ki hawa ki
जरा सा इशारा भी प्रेम को दूर भेज देगा 
उस  धुंए की तरह जो डूबा देता है ताजगी सुबह की हवा की 
Tark ko prem sirf Itnaa hi keh sakta hai
Rahaa main rukawat hai tum nikal naa sakoge
तर्क को प्रेम सिर्फ इतना ही कह सकता है 
राह में रूकावट है तुम निकल न सकोगे 
Par premi ko hazaroon ashirwad
Bheint kartaa hai
पर प्रेमी को हजारो आशीर्वाद 
भेंट करता है 


Iske pehle kee man uthhe, pehlaa kadam le
Prem saatwein swarg tak pahunch jata hai
इसके पहले कि मन उठे, पहला कदम ले 
प्रेम सातवें स्वर्ग तक पहुँच जाता है 
Iske pehle kee man soche... kaise?
Prem pavitra parvat chadh chukka hota hai
इसके पहले कि  मन सोचे ...... कैसे ! 
प्रेम पवित्र पर्वत चढ़ चुका होता है 


Ab mujhhe bolnaa band karnaa chahiye aur
Prem ko maun ke ghronde se
Bolane dena chahiye
अब मुझे  बोलना बंद करना चाहिए  और 
प्रेम को मौन के घरौंदे से 
बोलने देना  चाहिए 

Saturday, 9 July 2016

तरंगे

तरंगे 
हाँ !! तरंगे ........!!

नाचती 
हुंकार्ती
रंग रंगीली
डोलती


कुहुकती
बांसुरी सी ,
मधुर रागिनी ........!!


गुलाब सी
सुंदर सुरूप
मंजू ललिता
कोमल , खिलती ,
महकती ..............!!


सुदूर से उठती नाद सी
कभी अंतस में रमण-विलास
तो कभी गरजती

उठते समुद्री तूफान सी

बादलों सी काली
घिरती कभी बरसती ;
छुन छुन सी ...........!!


कभी ब्रश से लिपट
उभरती आकृति बन
फैलती कैनवास पे
तो कभी जीवन मंच पे
थिरकती रुनझुन सी
घूंघर बन छम छम करती
कभी बिजली हो तडकती
सात रंग ओढ़े 

नीले आसमान पे ...........!!

हाँ !! तरंगे ...
हम आप सी


अदृश्य जीवित
अदृश्य देह स्वामिनी
कुशल वास्तुकार सी
कोरे कागज पे


रेखाएं खेंचती
अनेकों ऊर्जाओं के
योग सहयोग से

मजबूत नींव खोदती

भरती उसे भविष्य की
बहुमंजिली ईमारत के लिए
संयोगो के योग की -
एक एक ईंट से बनाती

विशाल ईमारत

जो कभी हलकी तो
कभी भारी पत्थर सी
अपनी ही नींव पे खड़ी


तरंगों का भवन
लोहे और पत्थर से भरा
सुचारु कार्य
विभाजन के लिए
कमरों के लिए
दीवालें बनाती
और सुदृढ़ नींव


समयकाल में
जर्जर होती
अपनी ही ईमारत
को ढा देती


सु जागृत ,
सु अभिनेत्री
सु नर्तकी
सु कामिनी
सु कलाकार
देव विष्वकर्मा सी
कुशल निर्माण कर्त्री
निद्राधीन सुप्त योगिनी
विष्णु सी मोहिनी
मोह लोभ का 

रस पिलाती
अदृश्यदेहधारी ..............!!


हाँ !! तरंगे ...
हम आप सी
जीवन जी जाती
कभी सहज
कभी असहज होती


हम आप से अधिक 

आयु अवधि  ढोती
संजोए अपने ही कर्म को
बटोरती , समय के चक्र
पे चढ़ी हुई
युगों से
अपने ही
जीवन-पथ पे बढ़ती जाती..!!