Wednesday 20 July 2016

सिरजनहार " मैं " (मीरदाद के गीत)




समस्त वस्तुओं का स्रोत और केंद्र है जब तुम्हारे मुंह
से "मैं" निकले तो तुरंत अपने हृदय में कहो, - 
" प्रभु  " ,  " मैं " की विपत्तियों में  
मेरा आश्रय बनो,और "मैं" के परम आनंद की ओर 
चलने में मेरा मार्ग दर्शन करो ।”


क्योंकि इस शब्द के अंदर .....!
यद्यपि यह अत्यंत साधारण है,
किन्तु प्रत्येक अन्य शब्द की आत्मा कैद है ।
एक बार उसे मुक्त कर दो,
तो सुगंध फैलाएगा तुम्हारा मुख,
मिठास में पगी होगी तुम्हारी जिव्हा,
और तुम्हारे प्रत्येक शब्द से
जीवन में आह्लाद का रस टपकेगा ।
उसे कैद रहने दोगे,
तो दुर्गन्ध पूर्ण होगा तुम्हारा मुख,
कडवी होगी तुम्हारी जिव्हा
और तुम्हारे प्रत्येक शब्द से
मृत्यु का मवाद टपकेगा ।
जब तक " मैं " की
चमत्कारी शक्ति को प्राप्त नहीं करोगे,
तब तक तुम्हारी हालत ऐसी होगी
यदि गाना चाहोगे तो आर्तनाद करोगे;
शांति चाहोगे तो युद्ध करोगे;
यदि प्रकाश में उड़ान भरना चाहोगे,
तो अँधेरे कारागारों में पड़े सिकुड़ोगे ।
तुम्हारा ”मैं” अस्तित्व की तुम्हारी चेतना मात्र है,
”मैं” के विचार–मात्र से तुम
अपने दिमाग में विचारों के
समुद्र में  हिलकोरने लगाते हो ।
वह समुद्र रचना है तुम्हारे "मैं"की
जो एक साथ विचार और विचारक दोनों है ।

यदि तुम्हारे विचार ऐसे हैं जो
चुभते,काटते या नोचते हैं,
तो समझ लो कि तुम्हारे
अंदर के ”मैं” ने ही उन्हें डंक,
दांत, पंजे प्रदान किये हैं …
मीरदाद चाहता है ….
कि तुम यह भी जान लो
कि जो प्रदान कर सकता है
वह छीन भी सकता है।
"मैं " भावना–मात्र से तुम
अपने हृदय में भावनाओं का
कुआँ खोद लेते हो ।
यह कुआँ रचना है तुम्हारे ”मैं” की
जो एक साथ अनुभव करनेवाला
और अनुभव दोनों है ।
यदि तुम्हारे हृदय में कंटीली झाड़ियाँ हैं,
तो जान लो तुम्हारे अंदर के ”मैं” ने ही उन्हें वहां लगाया है ।
मीरदाद चाहता है कि तुम यह भी जान लो
कि जो इतनी आसानी से लगा सकता है
वह उतनी आसानी से जड़ से उखाड़ भी सकता है । 
"मैं" के उच्चारण–मात्र से तुम शब्दों के एक विशाल समूह को जन्म देते हो;
प्रत्येक शब्द होता एक वस्तु का प्रतीक;
प्रत्येक वस्तु होती है एक संसार का प्रतीक;
प्रत्येक संसार होता है एक ब्रम्हाण्ड का घटक अंग ।
वह ब्रम्हाण्ड रचना है तुम्हारे " मैं " की
जो एक साथ स्रष्टा और स्रष्टि दोनों है । 
यदि तुम्हारी स्रष्टि में कुछ हौव्वे हैं,
तो जान लो कि तुम्हारे अंदर के "मैं” ने ही
उन्हें अस्तित्व दिया है ।
मीरदाद चाहता है कि यह भी जान लो कि
जो रचना कर सकता है
वह नष्ट भी कर सकता है ।

जैसा स्रष्टा होता है, वैसी ही होती है उसकी रचना । 
क्या कोई अपने आप से अधिक
रचना रच सकता है?
या अपने आपसे कम?
स्रष्टा केवल अपने आपको रचता है—
-न अधिक, न कम ।
एक मूल– स्रोत है "मैं"
जिसमे वे सब वस्तुएं प्रवाहित होती हैं और जिसमे वे वापस चली जाती हैं ।
जैसा मूल स्रोत होता है, वैसा ही होता है उसका प्रवाह भी
इसलिए जैसी तुम्हारी चेतना है, वैसा ही तुम्हारा " मैं " ।
जैसा तुम्हारा " मैं " है वैसा ही है तुम्हारा संसार ।
यदि इस ; " मैं " का अर्थ स्पष्ट और निश्चित है,
तो तुम्हारे संसार का अर्थ भी स्पष्ट और निश्चित है;
और तब तुम्हारे शब्द कभी भूलभुलैयाँ नहीं होंगे;
न ही होंगे तुम्हारे कर्म पीड़ा के घोंसले ।
यदि यह परिवर्तन–रहित तथा चिर स्थाई है,
तो तुम्हारा संसार भी परिवर्तन रहित और चिर स्थाई है;
और तब तुम हो समय से भी अधिक महान
तथा स्थान से भी कहीं अधिक विस्तृत ।
यदि यह अस्थायी और अपरिवर्तनशील है,
तो तुम्हारा संसार भी अस्थायी और अपरिवर्तनशील है;
और तुम हो धुएं की एक परत
जिस पर सूर्य अपनी कोमल सांस छोड़ रहा है ।
यदि यह एक है तो तुम्हारा संसार भी एक है;
और तब तुम्हारे और स्वर्ग तथा पृथ्वी के
सब निवासियों के बीच अनंत शान्ति है ।
यदि यह अनेक है तो तुम्हारा संसार भी अनेक है;
और तुम अपने साथ तथा प्रभु के असीम साम्राज्य के
प्रत्येक प्राणी के साथ अन्त–हीन युद्ध कर रहे हो 
”मैं” तुम्हारे जीवन का केंद्र है
जिसमे से वे वस्तुएं निकलती हैं
जिनसे तुम्हारा सम्पूर्ण संसार बना है,
और जिनमे वे सब वापस आकर मिल जाती हैं । 
यदि यह स्थिर है तो तुम्हारा संसार भी स्थिर है;
ऊपर या नीचे की कोई भी शक्ति
तुम्हे दायें या बाएं नहीं डुला सकती ।
यदि यह चलायमान है तो
तुम्हारा संसार भी चलायमान है;
और तुम एक असहाय पत्ता हो
जो हवा के क्रुद्ध बवंडर की लपेट में आ गया है ।
और देखो तुम्हारा संसार स्थिर अवश्य है,
परन्तु केवल अस्थिरता में ।
निश्चित है तुम्हारा संसार,
परन्तु केवल अनिश्चितता में;
नित्य है तुम्हारा संसार,
परन्तु अनित्यता में;
एक है तुम्हारा संसार, परन्तु केवल अनेकता में ।
तुम्हारा संसार है कब्रों में बदलते पालनो का,
और पालनो में बदलती कब्रों का,
रातों को निगलते दिनों का,
और दिनों को उगलती रातों का,
युद्ध की घोषणा कर रही शान्ति का,
और शान्ति की प्रार्थना कर रहे युद्धों का,
अश्रुओं पर तैरती मुस्कानों का,
और मुस्कानों से दमकते अश्रुओं का ।
तुम्हारा संसार निरंतर
प्रसव-वेदना में तड़पता संसार है,
जिसकी धाय है मृत्यु ।
तुम्हारा संसार छलनियों और झरनियों का संसार है
जिसमे कोई दो छलनियाँ या झरनियाँ एक जैसी नहीं हैं ।
और तुम निरंतर उन वस्तुओं को
छानने और झारने में खपते रहे हो
जिन्हें छाना या झारा नहीं जा सकता ।
तुम्हारा संसार अपने ही विरुद्ध विभाजित है
क्योंकि तुम्हारे अंदर का ”मैं” इसी प्रकार विभाजित है ।
तुम्हारा संसार अवरोधों और बाड़ों का संसार है,
क्योंकि तुम्हारे अंदर का ”मैं” अवरोधों बाड़ों का ;मैं” है ।
कुछ वस्तुओं को यह पराया मान कर
बाड के बाहर कर देना चाहता है;
कुछ को अपना मानकर बाड़ के अंदर ले लेना चाहता है । 
परन्तु जो वस्तु बाड़ के बाहर है
वह सदा बलपूर्वक बाड़ के अंदर आती रहती है,
और जो वस्तु बाड़ के अंदर है
वह सदा बलपूर्वक बाड़ के बाहर जाती रहती है । 
क्योंकि वे एक ही माँ की–तुम्हारे ”मैं” की—
संतान होने के कारण अलग-अलग नहीं होना चाहतीं ।
और तुम, उनके शुभ मिलाप से प्रसन्न होने के बजाय,
अलग न हो सकनेवालों को अलग करने की
निष्फल चेष्टा में ही जुट जाते हो ।
"मैं" के अंदर की दरार को भरने की बजाय
तुम अपने जीवन को छील-छील कर नष्ट करते जाते हो; 
मीरदाद तुम्हारे ”मैं” के अंदर की दरारों को भर देना चाहता है
ताकि तुम अपने साथ, मनुष्य-मात्र के साथ, और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ शांतिपूर्वक जी सको ।
मीरदाद तुम्हारे ”मैं” के अंदर भरे विष को सोख लेना चाहता है
ताकि तुम ज्ञान की मिठास का रस चख सको ।
मीरदाद तुम्हे तुम्हारे ”मैं” को तोलने की विधि सिखाना चाहता है
ताकि तुम पूर्ण संतुलन का आनंद ले सको |
यद्यपि तुममे से हर-एक
अपने-अपने ” मैं ” में केन्द्रित हैं,
फिर भी तुम सब एक
मैं में केन्द्रित हो
प्रभु के  मैं  में |

प्रभु का ‘मैं’…..
प्रभु का शाश्वत,
एकमात्र शब्द है.
इसमें प्रभु प्रकट होता है
जो परम चेतना है.
इसके बिना
वह पूर्ण मौन ही रह जाता.
इसी के द्वारा
स्रष्टा ने अपनी
रचना की है.
इसी के द्वारा वह निराकार
अनेक आकार धारण करता है
जिनमे से होते हुए जीव फिर
से निराकारता में पहुँच जायेंगे.
अपने आपका अनुभव करने के लिये;
अपने आप का चिंतन करने के लिये;
अपने आप का उच्चारण करने केलिये
प्रभु को ‘मैं’ से अधिक और कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं.
इसलिए ‘मैं’ उसका एकमात्र शब्द है.
इसलिए यही शब्द है .
प्रभु ‘मैं’ कहता है
तो कुछ भी अनकहा नहीं रह जाता.
देखे हुए लोक और अनदेखे लोक;
जन्म ले चुकी वस्तुएं और जन्म लेने
की प्रतीक्षा कर रही वस्तुएं;
बीत रहा समय
और अभी आने वाला समय – सब;
सब-कुछ ही,
रेत के  एक-एक कण तक,
इसी शब्द के द्वारा प्रकट होता है
और इसी शब्द में समा जाता है.
इसी के द्वारा सब वस्तुएं रची गईं थी.
इसी के द्वारा सभी का पालन होता है .
यदि किसी किसी शब्द का कोई अर्थ न हो,
तो वह शब्द शून्य में गूंजती केवल एक प्रतिध्वनी है.
यदि इसका अर्थ सदा एक ही न हो,
तो यह गले का कैंसर जबान पर पड़े छाले से अधिक
और कुछ नहीं |
प्रभु का शब्द शून्य में गूंजती प्रतिध्वनी नहीं है,
न ही गले का कैंसर है,
सिवाय उनके लिए जो दिव्य ज्ञान से रहित हैं .
क्योंकि दिव्य ज्ञान वह पवित्र शक्ति है ….
जो शब्द को प्राणवान बनाती है
और उसे चेतना के साथ जोड़ देती है.
यह उस अनंत तराजू की डंडी है
जिसके दो पलड़े हैं —
आदि-चेतना और शब्द .
आदि-चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान —-
देखो साधुओ ! अस्तित्व की यह त्रिपुटी,
वे तीन जो एक हैं, वह एक जो तीन हैं,
परस्पर समान, सह-व्यापक, सह-शाश्वत; आत्म-संतुलित, आत्म- ज्ञानी, आत्म-पूरक. यह न कभी घटती है न बढती है —
सदैव शांत, सदैव सामान।
यह है पूर्ण संतुलन !
मनुष्य ने इसे "प्रभु" नाम दिया है,
यद्यपि यह इतना विलक्षण है कि
इसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता.
फिर भी पावन है यह नाम,
और पावन है वह जिव्हा जो इसे पावन रखती है .
मनुष्य यदि इस प्रभु की संतान नहीं तो और क्या है?
क्या वह प्रभु सकता है से भिन्न हो?
क्या बड़ का वृक्ष अपने बीज के अंदर समाया हुआ नहीं है?
क्या प्रभु मनुष्य के अंदर व्याप्त नहीं है?
इसलिए मनुष्य भी एक ऐसी ही
पावन त्रिपुटी है; चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान.
मनुष्य पोतड़ों में लिपटा एक परमात्मा है।
समय एक पोतड़ा है,
स्थान एक पोतड़ा है,
देह एक पोतड़ा है और
इसी प्रकार हैं इन्द्रियां तथा
उनके द्वारा अनुभव-गम्य वस्तुएं भी ।
माँ भली प्रकार जानती है
की पोतड़े शिशु नहीं हैं ।
परन्तु बच्चा यह नहीं जानता ।
अभी मनुष्य का अपने पोतड़ों
में बहुत ध्यान रहता है
जो हर दिन के साथ,
हर युग के साथ बदलते रहते हैं ।
इसलिए उसकी चेतना में
निरंतर परिवर्तन होता रहता है;
इसीलिए उसका शब्द,
जो उसकी चेतना की
अभिव्यक्ति है,
कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता;
और इसीलिए उसके विवेक पर धुंध छाई रहती है;
और इसीलिए उसका जीवन असंतुलित है ।
यह तिगुनी उलझन है ।
इसीलिए मनुष्य सहायता के लिए प्रार्थना करता है ।
उसका आर्तनाद अनादि काल से गूँज रहा है ।
वायु उसके मिलाप से बोझिल है ।
समुद्र उसके आंसुओं के नमक से खारा है ।
धरती पर उसकी कब्रों से गहरी झुर्रियां पड़ गईं हैं ।
आकाश उसकी प्रार्थनाओं से बहरा हो गया है ।
और यह सब इसलिए कि
अभी तक वह ; "मैं" का अर्थ
नहीं समझता जो उसके लिए है
पोतड़े और उसमे लिपटा हुआ शिशु भी ।
‘मैं’ कहते हुए मनुष्य शब्द को
दो भागों में चीर देता है;
एक, उसके पोतड़े;
दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व ।
क्या मनुष्य वास्तव में
अविभाज्य को विभाजित कर देता है ?
प्रभु न करे ; ऐसा हो ।
अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती–
ईश्वर की शक्ति भी नहीं ।
मनुष्य अपरिपक्व है
इसलिए विभाजन की कल्पना करता है ।
और मनुष्य, एक शिशु,
उस अनंत अस्तित्व को अपने
अस्तित्व का बैरी मानकर लड़ाई
के लिए कमर कस लेता है और
युद्ध की घोषणा कर देता है ।
इस युद्ध में, जो बराबरी का नहीं है,
मनुष्य अपने मांस के चीथड़े उडा देता है,
अपने रक्त की नदियाँ बहा देता है;
जबकि परमात्मा, जो माता भी है
और पिता भी, स्नेह-पूर्वक देखता रहता है,
क्योंकि वह भली-भाँती जानता है
कि मनुष्य अपने उन मोटे पर्दों
को ही फाड़ रहा है और अपने
उस कड़वे द्वेष को ही बहा रहा है
जो उस एक के साथ उसकी
एकता के प्रति उसे अँधा बनाय हुए है ।
यही मनुष्य की नियति है–
लड़ना और रक्त बहाना और मूर्छित हो जाना,
और अंत में जागना
और ‘मैं’ के अंदर की दरार को
अपने मांस से भरना
और अपने रक्त से उसे
मजबूती से बंद कर देना ।
इसलिए साथियों……..
तुम्हे सावधान कर दिया गया है–
और बड़ी बुद्धिमानी के साथ
सावधान कर दिया गया है–
कि ‘मैं’ का कम से कम प्रयोग करो ।
क्योंकि जब तक ‘मैं’ से
तुम्हारा तात्पर्य पोतड़े है,
उसमे लिपटा केवल शिशु नहीं;
जब तक इसका अर्थ तुम्हारे
लिए एक चलनी है, कुठली नहीं,
तब तक तुम अपने
मिथ्या अभिमान को छानते रहोगे 
और बटोरोगे केवल मृत्यु को, 
उससे उत्पन्न सभी पीडाओं और वेदनाओं के साथ |

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