Monday, 18 July 2016

सोचती हूँ !

मुझे पता है , आह !
पता  है कि सोचने से कुछ नहीं बदलेगा 
क्यूंकि मौसम बदलने का अपना एक चक्र है
फिर भी अनवरत सोचती हूँ ,  क्यूंकि जानती हूँ
"संवेदन" + "शीलता" जुड़वां इसी सोच में ही रहती है 
भू-कोख से जुड़वाँ जन्म लेती हैअसंख्य जुड़वाँ संताने
 प्रेम घृणा , आचार व्यभिचार , आदर निरादर ,जीवन मृत्यु 
परिचित हूँ सत्य से तब भी उसे पोषित इसे नेस्तनाबूत करती हूँ 
सोचना ही काफी नहीं  कुछ करने के लिए , फिर भी सोचती हूँ मैं 
सोचना हजार दफे अच्छा है, एक  मूक बधिर की शहादत के सामने 
युगांतर से द्रौपदी सी" धुआं है  तो  आग का वजूद भी है " सोचती हूँ 

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते  रमन्ते तत्र  देवता " किसने ! और क्यूँ ! कहा होगा !
खेंची मर्यादा रेखा अंदर खड़ी सीता युगों से एक ही श्राप संजोए है ,सोचती हूँ !
रावण से छली राम से दण्डित वाल्मीकिआश्रय में जुड़वां की जन्मदात्री जानकी 
सतयुग आ पहुंचा अपने ही युगांत को राम की रामायण-गाथा के अंत के साथ ही 
त्रेता का अंत था सतयुग का आरम्भ और अगर माने तो  शायद सतयुग का अंत ही 
द्वापर का आरम्भ भी था , यात्रा करते चलते चलते  समय आ पहुंचा अपने युगांत को 
द्वापर-अंत कथा ;  कौरव् पांडव के खून से  लिखी , स्त्री के अपमान की नींव पे  खड़ी  
अद्भुत संयोग ऋषियों के देश का सनातनी धर्म का राम कृष्ण की धरती का ये सच है 

पाण्डुपुत्र से योद्धा बलशाली पति, इंद्रप्रस्थ सदृश विलक्षण परकोटे में अतिसुरक्षित , 
किन्तु असुरक्षित, राजनीती से अमर्यादित होती द्रौपदी कालांतर से शोषित, सोचती हूँ !
अग्नि-जा , प्रखर , तेजस्वीन , बुद्धियुक्त , अप्रतिम नारीसौंदर्य से भरी थी, कृष्ण की सखी 
अपने राजदरबार में वो राजवधु लाचार,पीड़ित, ह्रदय  में श्राप की धधकती ज्वाला को समेटे 
क्रोध, क्षोभ, लज्जा -जल से पूरित लाल-नेत्र,  निरुत्तर दरबार में  उपस्थ्ति प्रतिष्ठित जन के बीच 
स्त्री-अस्मिता-उत्तर तलाशते अश्रु औ उत्तर में झुके हुए बेबस नेत्र  मौन, जिह्वा, वो बेबस पांचाली 
आज भी दुःशासन दुर्योधन सम खुले बेरोकटोक घूमते कितने ही असंख्य,दम्भित अट्टहास के साथ 
कहर ढाते अपनी दमित अतृप्त वासनाओ के, कभी काल बन टूट पड़ते अँधेरे उजाले में सोचती हूँ ! 
अहंकारी छद्म धूल से सने, गुबार उड़ाते , देश काल समय धर्म की सभी सीमायें जो पार कर चुके है 
दुः साहसी दुःशासन दुर्योधन और सहयोगी मदांध चीरहरण में मग्न,वो ही  द्रौपदी दोनों हाथ जोड़े आज भी 
कृष्ण से मदद की गुहार करती  नजर आती  है,उसी समाज में, उसी समाज को , चीख चीख मानो कहती जाती है- " ये श्राप है मेरा -जिस परिवार में स्त्री सम्मान नहीं वो परिवार दंश ग्रस्त गर्त की राह पे  है , जिस देश में स्त्री का मान नहीं , वो देश  दंश ग्रस्त हो पतन की  राह  पे है ! बुद्धिमान पराकर्मी रावण की धूं..धूं कर जलती लंका समान ही उस देश का भी समूल विनाश निश्चित है , मैं अग्निपुत्री, कृष्णसखी, पांचली आज अपने बालों को खोल  प्रतिज्ञा लेती हूँ, रक्त से  स्नान  पश्चात ही ये बाल बंधेंगे भरे समाज में  ये घोषित करती हूँ, कौरववंश का नाश  पाण्डु पुत्रों के हाथ सुनिश्चित है,इस युग का अंत सुनिश्चित है  ! "

अफ़सोस  !! हमेशा की तरह ,  माता गांधारी , पिता धृतराष्ट्र , दादा भीष्म, और द्रोण सम  गुरुजन समेत नेत्र झुकाए लज्जित  मौन। कभी न समाप्त होने वाले उस श्राप की गूंज के साथ , दुर्योधन और दुःशासन  का कभी न समाप्त होने वाला अट्टहास भी सदियों से ऐसे ही गूंज  रहा है।


अंत में एक प्रश्न और एक जिज्ञासा  अधूरा हमेशा की तरह :- 

तो क्या हर युग का अंत  ऐसे ही  निश्चित है  जहाँ राक्षस  दम्भी  हो  शक्ति का दरुपयोग  करने लगे. , साम्राज्य  का विस्तार  करते जाएँ  , साधू (सज्जन ) समुदाय  सीमित होता जाये , संकेत है ये एक और युगांत का।

और  .. मैं  , सोचती हूँ !! 
यूँ  .. ही   ,  सोचती हूँ !! 
सदियों से  , सोचती हूँ !! 

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