Sunday, 11 January 2015

ओम !



काहे रे नलिनी  तू कुम्हलानी, तेरे   ही   नाल सरोवर पानी 
जल में उत्पत्ति  जल में वास , जल में  नलिनी तोर निवास 




सर्वस्व  आरम्भ अंत  में  एक ही बात
ओम में  आरम्भ  ओम  में ही  विलय 
ओम से   स्नान   हो ओम का ही  पान 


क्षुद्रता   से व्यापकता  के साम्राज्य में 
मानव औकात  रेंगते  कीड़े से भी कम
किस का मान किस बात का अभिमान 

संज्ञानी ! कैसा ज्ञान और कैसा अज्ञान  
ध्यान से जरा देखो अपनी देह के भीतर 
रेंगते-दौड़ते,जीती-मरती कोशिका तुम 

श्वेत रक्त कण ज्यूँ पलते तेरी  देह में 
उसी सामान पलते तुम , धरती-देह में 
रेंगते  दीखते स्पष्ट  धरती के शरीर में 

असंख्य जीवों जंतु कणो को ऊर्जा देती 
धरती घूम रही धुरी पे निरंतर संयम से 
व्यर्थ है झूठा मान  रे  मूरख अभिमानी 

Saturday, 10 January 2015

एक कण



रेत के  एक कण ने सुनाया  दर्दनाक किस्सा 

हजारों  साल  घिसे  इकठे हो बृहत पर्वत बने


एक  धमाके ने मिटा दिया वजूद संगठन का 

कल परबत था जहाँ वहीँ वीरान पड़ा खड्डा है


दिल से "दोस्त" कहना चाहता हूँ




इस चोटी पे वो कुछ नहीं दीखता
जो कभी सुना था पढ़ा  जाना था 

from that top never those  seen
as we heard once or read and known

यहाँ इस ऊंचाई पे हूँ अकेला खड़ा 
अपने खोखले अस्तित्व के साथ !

here on this height i am alone
with myself hollow existence

बस एक वो है सामने एक  मैं  हूँ 
वो भी तब तक जब तक खड़ा हूँ

one thy is  in front i am one
only till whenever i am stand

सूखे ढांचे के साथ इस धड़कनो से 
माला के मोती पिरोना  चाहता हूँ

with dry skeleton this heart beats
 want to make  garland of pearls

कहना चाहता हूँ वो जो  सब सुना 
पढ़ा जाना वो ऐसा बिलकुल नहीं

want to say whatever all heards
read and known thy is not similar

बहुत परे वो तुम्हारे धर्मशास्त्रों से 
गाई अजानो, सूली पे टंगे क्रास से

much away your's holy scriptures
sung prayers  and hand over cross

कबीर ,रूमी , उस्ताद मीरदाद को 
दिल से "दोस्त" कहना चाहता हूँ

Kabir  rumi  and Guru meerdad
from heart  want to say "friends "

मेरे दिल के टुकड़े


बड़ी उलझन में हूँ कैसे कहूँ क्या कहूँ
इसको सही कहूँ की उसको सही कहूँ

खुद  को  ही बार बार काटती  हूँ  मैं
फिर  जोड़ती  हूँ , टूटे  सिरे  दोबारा

दोनों  ही  दिल  के  टुकड़े अजीज है
अपने अपने नजरिये  से दोनों सही

एक भावनाओं के समंदर में नहाया
तो दूजा भावनाओ को पहने जी रहा

सही कहु किसे सही  होने  को  कहूँ ?
समय की मार औ वार दोनों के लिए

दोनों ही समय के हथोड़े  को सह रहे
दोनों संघर्ष कर रहे जी रहे संभल रहे

दोनों ही प्रेम और आशीष के हक़दार
दोनों ही  मेरे  दिल के टुकड़े मेरा लहू

मुझसे ही पैदा दोनों  मेरे प्रतिबिम्ब
मेरे ही सुख और दुःख के सृजनहार

चार  कोण  पे  फैला  मेरा साम्राज्य
चार  दिशाओं में फैले जुड़े अंदर तार

त्रिकोण  से देखू  तो जानू  स्वयं को
मेरा ही विस्तार , मेरा ही व्यापार है  

यद्यपि गर्भ एक  गर्भ पीड़ा भी एक 
माँपिताकोणसंयोग से स्थति भिन्न

होगए विचार अलग परिणाम भिन्न
जीवन के  मापदंड आधार अलग हुए

पर ये भी तो  मेरा ही विकसित भाग
मेरी वो संतान  सुखद मेरे अंजाम है




Tuesday, 6 January 2015

अंजान राह के अंजान सफर पे

 सफर 


तेजी से दौड़ते भागते वक्त ने 

जरा थम के...गहरी सांस भरी 

हरबार हरमोड़ पे खुद से मिले


पहले अनजान थे पहचान हुई 

फिर घनिष्ठता घटी और फिर 

अंजान बन गए ज्यूँ मिले नहीं


कुछ सोच एक औरगहरी सांस 

इस बार साथ.. साथ..चल पड़े

अंजान राह के अंजान सफर पे

Friday, 2 January 2015

माया है मूरख माया है ये




ओरी दुनिया गजब निराली 
जैसी दृष्टि ! बने वैसी सृष्टि 
खेल तमाशा या शोर शराबा 

नित  नवीन  उत्सव   उमंग 
प्रेमपाश  मोहपाश  रूपपाश 
स्वदेस राह  भूल  मन  डूबा  

नाच, नगाड़ा, टप्पा, भांगड़ा 
इधर धमाका  उधर पटाखा 
कहीं फुलझड़ी जली रे जली  

कहीं कागज नहाये  रंगों  से 
कही सुर  तो कहीं गीत बने 
कहीं ताल, कही नृत्य उभरे 

सुर्ख इंद्रधनुषी सात रंग का 
कहीं बिखरा , कहीं  बिखेरा 
मोहिनी नहाती सब रंगो से 

बारी बारी रूप लुभाती जाती 
सुगंध -पुष्प के  जेवर  पहने 
अपूर्व सौंदर्य की स्वामिनी है 

जीव न समझ सम्मोहन है 
बुद्धिहारिणी, मोह्पाशिनी 
माया  है  मूरख  माया है ये !

Thursday, 1 January 2015

अनुभव

जाना माना महसूस किया डूब उस गहराई में
कहना तो था बहुत कुछ , ज़बान लड़खड़ा गई

कुछ कंठ में अटक गए , कुछ दिल में चुभ गए
कुछ शब्द उभर निकले तो थे पर अधूरे से लगे

मोती से शब्दों की लड़ियों संग पिरो हार बनाते
शब्द तराशते संवारते उम्र रेत सी फिसल गयी